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अनेकान्त-57/1-2
मित्रानुराग और निदान सल्लेखना के ये पांच अतिचार बताये हैं। सल्लेखना धारी साधक को अपनी सेवा शुश्रुषा होती देखकर अथवा अपनी इस साधना से बढ़ती हुई प्रतिष्ठा के लोभ में और अधिक जीने की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। मैंने आहारादि का त्याग तो कर दिया है किन्तु मैं अधिक समय तक रहूँ तो मुझे भूख-प्यास आदि की वेदना भी हो सकती है, इसलिए अब और अधिक न जीकर शीघ्र ही मर जाऊँ तो अच्छा होगा, इस प्रकार मरण की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। सल्लेखना धारण कर ली है, पर ऐसा न हो कि क्षुधा आदि की वेदना बढ़ जाये और मैं उसे सह न पाऊँ, इस प्रकार का भय भी मन से निकाल देना चाहिए। अब तो मुझे संसार से विदा होना है किन्तु एक बार मैं अपने अमुक मित्र से मिल लेता तो बहुत अच्छा होता इस प्रकार का भाव मित्रानुराग है। साधक को इससे बचना चाहिए। मुझे इस साधना के प्रभाव से आगामी जन्म में विशेष भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त हो; इस प्रकार का विचार करना निदान है। साधक को इससे बचना चाहिए। जीने मरने की चाह, भय, मित्रों से अनुराग और निदान ये पांचों सल्लेखना को दूषित करने वाले अतिचार हैं, अतः साधक को इनसे बचना चाहिए। जो एक बार अतिचार रहित होकर सल्लेखना पूर्वक मरण करता है, वह अति शीघ्र मोक्ष पाता है। इसलिए प्रत्येक साधक श्रावक और मुनि दोनों को जीवन के अन्त में प्रीति एवं समता पूर्वक सल्लेखना धारण करने का उपदेश दिया गया है।
सन्दर्भ 1. भगवती आराधना, विजयोदया टीका गाथा 21 पृष्ठ 43, 2. तत्त्वार्थसूत्र 7/22, 3. रत्नकरण्डक श्रावकाचार -आ. समन्तभद्र-5/1, 4. सर्वार्थसिद्धि 7/22 पृष्ठ 363, 5. तत्त्वार्थवृत्ति, 7/22 पृष्ठ 244, 6. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, आ. समन्तभद्र 5/2, 7. भाव प्राभृत गाथा 59, 8. तत्त्वार्थसूत्र 7/37, 9. परमात्मप्रकाश दोहा पृष्ठ 328, 10.गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा 60 11. “अरिहन्त सिद्धसागर-पउमसरं खीरपुफ फलभरिदं।
उज्जाण-भवण-तोरण-पासादं णाग-जक्खघरं ।।" -मूलराधना गाथा 560 12. “उत्तरपुव्वा पुज्जा" वृहद् कल्प सूत्र, सूत्र 457, 13. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, आ. समन्तभद्र 5/8
- श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान वीरोदयनगर सांगानेर, जयपुर (राज.)