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अनेकान्त-57/1-2
'त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु 26 – यहाँ इस सूत्र में सूत्रकार ने ब्रह्म-बह्मोत्तर नामक तीसरे पटल से आरण-अच्युत नामक आठवें पटल तक के कल्पवासी देवों की उत्कृष्ट आयु का उल्लेख किया है और बतलाया है कि इन पटलों के देवों की आयु पूर्व सूत्र से गृहीत सात सागर सहित क्रमशः तीन, सात, नौ, ग्यारह, तेरह और पन्द्रह सागर अर्थात् क्रमशः दश, चौदह, सोलह, अठारह, बीस और बाइस सागर कही है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि मूल सूत्र में 'तु' शब्द का प्रयोग किया गया है, जो सामान्यतया सूत्र में अलग-थलग दिखलाई दे रहा है, किन्तु उसका यहाँ विशेष प्रयोजन है, जिसका स्पष्टीकरण करते हुये आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि'अधिकंशब्दोऽनुवर्तमानश्चतुर्भिरभिसंबध्यते नोत्तराभ्यामित्ययमर्थो विशिष्यते। तेनायमर्थो भवति - ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोर्दशसागरोपमाणि साधिकानि। लान्तवकापिष्ठयोश्चतुर्दश सागरोपमाणि साधिकानि। शुक्रमहाशुक्रयोः षोडशसागरोपमाणि साधिकानि। शतार-सहस्रारयोरष्टादशसागरोपमाणि साधिकानि। आनतप्राणतयोर्विशति सागरोपमाणि। आरणाच्युतयोविंशति सागरोपमाणि । 27 अर्थात् यहाँ 'तु' शब्द के प्रयोग से यह जानकारी मिलती है कि पूर्व सूत्र से यहाँ जो अधिक शब्द की अनुवृत्ति हुई है उसका सम्बन्ध त्रि आदि चार शब्दों से ही होता है, अन्त के दो स्थिति विकल्पों से नहीं। इससे यहाँ यह अर्थ ध्वनित होता है कि-ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में साधिक दश सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। लान्तव और कापिष्ठ में साधिक चौदह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। शुक्र और महाशक्र में साधिक सोलह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। शतार और सहस्रार में साधिक अठारह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है। आनत और प्राणत में बीस सागरोपम स्थिति है तथा आरण और अच्युत में बाइस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकार उमास्वामी ने सूत्रों में जिन-जिन रहस्यों का समावेश किया है तथा जन साधारण की पकड़ से बाहर हैं उन उन रहस्यों को आचार्य पूज्यपाद ने अपने व्याकरण ज्ञान के माध्यम से प्रकट करने का भरसक प्रयास किया है और उसमें वे पूरी तरह सफल भी हुये हैं। यतः तत्त्वार्थसूत्र की संस्कृत टीकाओं में आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि