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अनेकान्त-57/1-2
नियम-उपनियम एक से हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार के छठे अधिकार की पहली कारिका में सल्लेखना का लक्षण लिखा है और दूसरी कारिका में उसके लिए समाधिमरण का प्रयोग किया है। श्री शिवकोटि आचार्य ने भगवती आराधना में अनेकों स्थानों पर सल्लेखना और समाधिमरण का प्रायः एक अर्थ में प्रयोग किया है। आचार्य उमास्वामी ने श्रावक और मुनि दोनों के लिए सल्लेखना का प्रतिपादन कर मानों सल्लेखना ओर समाधिमरण का भेद ही मिटा दिया है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने समाधिमरण साधु के लिए और सल्लेखना गृहस्थ के लिए माना है। मरण के समय एक साधु शुद्ध आत्मस्वरूप पर अपने मन को जितना एकाग्र कर सकता है, उतना गृहस्थ नहीं। इस समय तक साधु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा समाधिमरण करने में निपुण हो चुकता है। समाधि में एकाग्रता अधिक होती है। समाधिमरण और उसके भेद :- समाधिमरण दो शब्दों के मेल से बना हैसमाधि और मरण। इसका अर्थ है- समाधिपूर्वक मरण। शुद्ध आत्मस्वरूप पर मन को केन्द्रित करते हुए प्राणों का विसर्जन समाधिमरण कहलाता है। यदि जीवन के अन्त समय में राग द्वेष को छोड़कर समाधि न धारण की जायें तो जीवन भर की तपस्या व्यर्थ मानी जाती है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है
अन्तक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते।
तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणेप्रयतितव्यम्।।" अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य भी यदि मरण के समय उस धर्म की विराधना कर बैठता है तो वह संसार में अनन्त काल तक घूम सकता है। समाधिमरण का विधान सभी के लिए है। समाधिमरण के पांच भेद हैं- पण्डित पण्डित, पण्डित, बालपण्डित, बाल
और बाल-बाल। इनमें से प्रथम तीन अच्छे और अवशिष्ट दो अशुभ हैं। बाल-बाल मरण मिथ्यादृष्टि जीवों के, बाल-मरण अविरत सम्यक् दृष्टियों बाल-पण्डितमरण देशव्रतियों के, पण्डितमरण सकल संयमी साधुओं के और पण्डित-पण्डित मरण क्षीण कषाय केवलियों के होता है। पण्डित मरण के तीन