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अनेकान्त-57/1-2
श्रमैकफलारम्भतः पौद्गलिकपुण्यपापोपलम्भतः। दृक्कथमुदेति हन्त! नवनीतं नीरमन्थनतः।।
-श्रमणशतक, 10 प्रकृत उदाहरण में आरंभ एवं पौद्गलिक पुण्य-पाप से सम्यग्दर्शन की अनुत्पत्ति रूप विशेष का समर्थन जल के मन्थन से नवनीत की अनुत्पत्ति रूप सामान्य से किया गया है। अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
विरोधाभास- जहाँ वास्तविक विरोध न होने पर भी विरोध जैसी प्रतीति होती है, वहां विरोधाभास अलंकार होता है। यथा
परमवीरक आत्मजयीह त इति शिवो हृदि लोकजयी हतः। अणुरसीति मनोरसि तानितः समयकान् स्वविदा भवतानितः ।।
-निरंजनशतक, 87 यहाँ पर प्रयुक्त विशेषणों आत्मजयी एवं लोकजयी तथा अणु एवं विश्वव्यापी (भवतानित) में विरोध प्रतीत होता है, परन्तु वास्तविक विरोध नहीं है। अतः विरोधाभास अलंकार है।
उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त संसृष्टि और संकर अलंकार तो प्रायः उनके शतक काव्यों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। भाषा-शैली
आचार्य विद्यासागर द्वारा विरचित शतकों में सुनीति शतक की भाषा-शैली भर्तृहरि के शतकत्रय की तरह सरल एवं हृदयग्राही है। इसमें वैदर्भी रीति तथा प्रसादगुण विद्यमान है। दान्तिक शैली के कारण उनका कथ्य पाठक को सीधे प्रभावित करता है। शेष शतकों में यद्यपि कोमल कान्त पदावली प्रयुक्त है, तथापि शब्दालंकारों के आधिक्य से कहीं-2 भावाभिव्यक्ति में काठिन्य प्रतीत होता है। स्थान-स्थान पर उदाहरणों के माध्यम से कथ्य को सरल बनाया गया है। सूक्तियों के रूप में मूल्यपरक शिक्षाओं का समावेश अत्यन्त प्रभावी है।