________________
66
अनेकान्त-57/1-2
हैं और बनती रहेंगी। इस प्रकार यहां किसी एक ईश्वर की कल्पना स्वीकार्य नहीं है और न ही यह स्वीकृत किया जा सकता है कि कोई भी ईश्वर किसी भी पदार्थ में अपनी इच्छा से कुछ भी करने के लिए समर्थ होता है। सच तो यह है कि ईश्वर तो वीतराग और सर्वज्ञ होता है जो सारी वस्तुओं को जानकर भी उनके प्रति उदासीनभाव अर्थात् वीतरागभाव से निराकुल होकर अपने अनंत गुण स्वरूप ऐश्वर्य में निमग्न रहता है। पर पदार्थ चाहे चिद् हों या अचिद् को सुधारने-बिगाड़ने, अपनी इच्छानुरूप करने या न करने आदि का प्रश्न ही नहीं उठता। लोक में यह सब मिथ्याहंकार और आकुलतामय चौधराहट के बिना संभव ही नहीं है। जैनदर्शन में ईश्वर के न मिथ्याहंकार है
और न ही आकुलता की चौधराहट फिर भला वह पर का कर्ता-धर्ता क्यों होगा।
यह मान्यता नितांत भ्रामक है कि नैयायिक-वैशेषिक मत में जिस प्रकार ईश्वर जीवात्माओं को सुख-दुःख का फल देता है उसी प्रकार जैन-दर्शन में कर्म जीवों को सुख-दुःख आदि फल प्रदान करते हैं। यह भ्रमापगम के अभिप्राय से हमें यह जान लेना आवश्यक है कि जीवों के द्वारा किये गये कर्मो का फल देने में नैयायिक-वैशेषिक अभिमत ईश्वर निमित्त कर्ता है और जैनाभिमत कर्म केवल निमित्त हैं। निमित्त और निमित्तकर्ता शब्दों में अविचारित साम्य का भ्रम न हो इसलिए हमें नैयायिक-वैशेषिकों की ईश्वर को निमित्तकर्ता बताने रूप मान्यता का और जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार कर्म केवल निमित्त है इस मान्यता का परिज्ञान कर लेना चाहिए।
कर्म फल कैसे देते हैं -
अन्य दर्शनों में भी जीव को कर्म करने में स्वतंत्र माना है किंतु उसका फल भोगने में परतंत्र माना है। उनकी दृष्टि से जड़ कर्म स्वयं अपना फल नहीं दे सकता। अतः ईश्वर उसे उसके कर्मों के अनुसार फल देता है किंतु जैनधर्म में तो ऐसा कोई ईश्वर नहीं है। अतः जीव स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति दूध पीकर पुष्ट होता है और दूसरा व्यक्ति शराब पीकर मतवाला होता है। क्या इसके लिए किसी