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अनेकान्त-57/1-2
परिस्थिति में 'बुद्धिः कर्मानुसारिणी' अर्थात् प्राणियों की बुद्धि कर्म के अनुसार होती है, इस न्याय के अनुसार किसी भी काम को करने या न करने में मनुष्य सर्वथा स्वतंत्र नहीं है। इस पर से यह आशंका होती है कि ऐसी दशा में तो कोई भी जीव मुक्तिलाभ नहीं कर सकेगा क्योंकि जीव कर्म से बंधा है और कर्म के अनुसार जीव की बुद्धि होती है किंतु ऐसी आशंका ठीक नहीं है क्योंकि कर्म अच्छे भी होते हैं और बुरे भी। अतः अच्छे कर्म का अनुसरण करने वाली बुद्धि मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाती है और बुरे कर्म का अनुसरण करने वाली बुद्धि मनुष्य को कुमार्ग की ओर ले जाती है। सन्मार्ग पर चलने से क्रमशः मुक्ति का लाभ और कुमार्ग पर चलने से कुगति लाभ होता है।
जब उक्त प्रकार से जीव कर्म करने में स्वतंत्र नहीं है तब घातक का घातनरूप कर्म उसकी दुर्बुद्धि का ही परिणाम कहा जायेगा, और बुद्धि की दुष्टता उसके किसी पूर्वकृत कर्म का फल होना चाहिए। किंतु जब हम कर्म का फल ईश्वराधीन मानते हैं तो उसका प्रेरक ईश्वर को ही कहा जायेगा। __यदि हम ईश्वर को फलदाता न मानकर जीव के कर्मों में ही स्वतः फलदान की शक्ति मान लेते हैं तो उक्त समस्या हल हो जाती है। क्योंकि मनुष्य के पूर्वकृत बुरे कर्म उसकी आत्मा पर इस प्रकार के संस्कार डाल देते हैं जिससे वह क्रुद्ध होकर हत्या तक कर बैठता है। __ईश्वर को फलदाता मानने पर हमारी विचार-शक्ति कहती है कि किसी विचारशील फलदाता को किसी व्यक्ति के बुरे कर्म का फल ऐसा देना चाहिए जो उसकी सजा के रूप में हो, न कि दूसरों को उसके द्वारा सजा दिलवाने के रूप में। उक्त घटना में ईश्वर घातक से दूसरे का घात कराता है, क्योंकि उसे उसके द्वारा दूसरे को सजा दिलानी है किंतु घातक की जिस दुर्बुद्धि के कारण वह पर का घात करता है उस बुद्धि को दुष्ट करने वाले कर्मो का उसे क्या फल मिला। अतः ईश्वर को कर्मफलप्रदाता मानने में इसी तरह अन्य भी अनेक अनुपपत्तियां खड़ी होती हैं।
किसी कर्म का फल हमें तत्काल मिल जाता है, किसी का कुछ समय बाद