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अनेकान्त-57/1-2
अदृष्ट शक्ति से होती है और वह पूर्व कर्मो के फलों का परिणाम है।" वात्स्यायन के अनुसार हमारे सब कर्मो का फल मोक्ष से पूर्व के अंतिम जन्म में प्राप्त होता है।" न्याय दर्शन कर्मवाद पर विश्वास करता है। कर्म यदि बिना फलेच्छा के किया जाता है तो जीव का उच्च सुसंस्कृत कुल में जन्म होता है, निष्काम कर्म तत्त्व-साक्षात्कार में सहायक सिद्ध होता है पर स्वयं वह कर्म मिथ्याज्ञान का विनाश नहीं कर सकता। जब प्रतिरोधक कर्म के उपभोग से प्रारब्ध एवं संचित कर्मो का भी अंत हो जाता है तब साधक का शरीर से संबंध छूट जाता है। यह मुक्ति है। प्रत्येक कर्म का फल शीघ्र नहीं मिलता, बहुत से कर्म ऐसे हैं कि उनका फल कालांतर या जन्मांतर में मिलता है। प्रत्येक कर्म से धर्माधर्म रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं। फिर वे अन्य कारणों से परिपुष्ट होकर शुभाशुभ फल उत्पन्न करते हैं।"
गौतम का न्यायसूत्र और न्यायसूत्र पर वात्स्यायन का वात्स्यायन-भाष्य तथा प्रशस्तपाद का प्रशस्तपाद-भाष्य ईश्वर विषयक युक्तियों के प्रामाणिक संग्रह हैं। इन युक्तियों को जैन आचार्यों ने अपने दार्शनिक ग्रंथों में पूर्वपक्ष के रूप में संकलित किया है वे संक्षेप में इस प्रकार हैं1. पृथ्वी आदि का कर्ता कोई बुद्धिमान है क्योंकि वह घट के समान कार्य
है। जो कार्य होता है उसका कर्ता कोई न कोई अवश्य होता है। 2. कार्यत्व हेतु की व्यष्टि केवल बुद्धिमत्कर्तत्व के साथ ही मानना चाहिए,
अशरीरी सर्वज्ञ कर्ता के साथ नहीं। ईश्वर सभी कार्यों का कर्ता है अतः उसे सर्वज्ञ भी होना चाहिए। ज्ञान, चिकीर्षा और प्रयत्न के साथ ही लक्ष्य
होते हैं। 3. वह ईश्वर एक है और अनेक कर्ता उस एक अधिष्ठाता के नियंत्रण में ही
कार्य करते हैं। 4. वनस्पति आदि का कर्ता दृश्य नहीं, अतः उसे दृश्यानुपलब्धि हेतु से
असिद्ध नहीं किया जा सकता। 5. ईश्वर धर्म-अधर्म की सहायता से परम दयालु होकर तदनुसार सुख-दुःख