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अनेकान्त-57/1-2
के सद्भाव में जाति, आयु तथा योगरूप कर्मो का विपाक होता है। वे आनन्द तथा संताप प्रदान करते हैं, क्योंकि उनका कारण पुण्य तथा अपुण्य है। योगी के अशुक्ल तथा अकृष्ण कर्म होते हैं। संसारी जीवों के शुक्ल तथा शुक्ल-कृष्णकर्म होते हैं।
न्यायमंजरी' में लिखा है-'जो देव, मनुष्य तथा तिर्यंचों में शरीरोत्पत्ति देखी जाती है, जो प्रत्येक पदार्थ के प्रति बुद्धि उत्पन्न होती है, जो आत्मा के साथ मन का संसर्ग होता है, वह सब प्रवृत्ति के परिणाम का वैभव है। सर्व प्रवृत्ति क्रियात्मक है, अतः क्षणिक है, फिर भी उससे उत्पन्न होने वाला धर्म, अधर्म पदवाच्य आत्म-संस्कार कर्म के फलोपभोग पर्यन्त स्थिर रहता ही है।'
भिक्षु नागसेन ने मिलिन्द सम्राट से जो प्रश्नोत्तर किये थे, उनसे कर्मो के विषय में बौद्धदृष्टि का अवबोध होता है
राजा बोला-भंते! क्या कारण है कि सभी आदमी एक ही तरह के नहीं होते? कोई कम आयु वाले, कोई दीर्घ आयु वाले, कोई बहुत रोगी, कोई नीरोग, कोई भद्दे, कोई बड़े सुन्दर, कोई प्रभावहीन, कोई बड़े प्रभाव वाले, कोई गरीब, कोई धनी, कोई नीच कुल वाले, कोई उच्च कुल वाले, कोई मूर्ख, कोई बुद्धिमान क्यों होते हैं?
स्थविर बोले-महाराज क्या कारण है कि सभी वनस्पतियां एक सी नहीं होती? कोई खट्टी, कोई नमकीन, कोई तिक्त, कोई कड़वी, कोई कषाय वाली
और कोई मधुर क्यों होती हैं? __ भंते! मैं समझता हूँ कि बीजों की भिन्नता के कारण ही वनस्पतियों में भिन्नता है।
महाराज! इसी प्रकार सभी मनुष्यों के अपने-अपने कर्म भिन्न-भिन्न होने से वे सभी एक ही प्रकार के नहीं हैं। महाराज! बुद्धदेव ने कहा-हे मानव! अपने कर्मो का सभी जीव उपभोग करते हैं। सभी जीव अपने कर्मों के स्वामी हैं। अपने कर्मों के अनुसार नाना योनियों में जन्म धारण करते हैं। अपना कर्म