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अनेकान्त-57/1-2
उपस्थित नहीं करता है। निरञ्जन शतक में शान्त रस का परिपाक सर्वत्र व्याप्त है। यथा
खविषयं विरसं नहिं मे मनो विचरदिच्छति शैवमगे मनो। परिविहाय घृतं स सुधीः कदा जगति तक्रमिदं समधीः सदा।। अर्थात् मोक्षमार्ग में विचरण करने वाला मेरा मन नीरस इन्द्रिय विषयों की इच्छा नहीं करता है। यह ठीक है कि जगत् में कौन ऐसा विद्वान् है जो घी को छोड़कर मट्ठा (छांछ) पीने की इच्छा करता है?
भावनाशतक के तो प्रत्येक पद्य में शान्तरस की अजस्र धारा विद्यमान है। प्रथम पद्य में ही गुरु की स्तुति द्रष्टव्य है
सुधृतरत्नत्रयशरं गुरो ध्यानवसुविनष्टकुसुमशरम् ।
त्वां वीतानुभवशरं यजेऽमुं शमय मेऽनाश! रम्।। हे गुरु! हे आशा से रहित! रत्नत्रयरूपी हार के धारक, ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा काम को नष्ट करने वाले और अनुभव रूपी जल का पान करने वाले आपकी मैं पूजा करता हूँ, आप मेरे कामभाव को शान्त करो।
परिषहजयशतक का तो उद्देश्य ही 22 प्रकार के परिषहों के आने पर शान्त बने रहना है। इसमें भी सर्वत्र शान्तरस है। मुनि को शीत होने पर भी अपने धर्म में स्थिर रहने का उपदेश देते हुए कहा गया है
चलतु शीततमोऽपि सदागतिरमृतभावमुपैतु सदागतिः। जगति कम्पवती रसदागतिः स्खलति नो वृषतोऽपि सदागतिः।। अर्थात् अत्यन्त शीत पवन चले, अग्नि अमृत भाव को प्राप्त हो और संसार में जीवों की स्थिति कंपन युक्त हो जावे तथा शरीर को विदीर्ण करने वाली हो तो भी मुनि अपने धर्म से विचलित नहीं होते है।
सुनीतिशतक में शान्तरस के विषय में आचार्यश्री ने स्वयं लिखा है कि इस पृथ्वी पर कुमकुम के बिना स्त्री का ललाट, उद्योग के बिना देश, सम्यक्दर्शन के बिना मुनि का चरित्र तथा शान्त रस के बिना कवि का छन्द शोभायमान