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अनेकान्त-57/1-2
विद्यमान है। पूज्य आचार्यश्री ने शारदास्तुति के अतिरिक्त संस्कृत में श्रमणशतक, निरञ्जनशतक, भावनाशतक, परिषहजयशतक एवं सुनीतिशतक नामक पाँच शतक काव्यों की रचना की है। इनमें क्रमशः 107, 106, 101, 100+1 (निरंजनशतकम् से यथावत्) तथा 108 पद्य हैं। श्रमणशतक में आचार्यश्री द्वारा दिगम्बर मुनियों को सम्बोधन करते हुए कहा गया है कि उन्हें अपनी आत्मा को निर्मल बनाना चाहिए। निरञ्जनशतक में शुद्ध आत्मतत्व का विवेचन है तो भावनाशतक में जगत् की असारता का वर्णन करते हुए तीर्थकर प्रकृति बांधने वालीं सोलहकारण भावनाओं का वर्णन है। जैनश्रमण 22 परिषहों का विजेता होता है। परिषहजयशतक में इन्हीं 22 परिषहों को सहन करने की पद्धति का विवेचन हुआ है। आचार्य श्री ने सुनीतिशतक द्वारा भव्यों को मोक्षमार्ग में लगाने का पावन प्रयास किया है।
शतक साहित्य का साहित्यिक मूल्यांकन (क) रस
शब्द और अर्थ काव्य की काया है तो रस काव्य की आत्मा। लोक में रति आदि स्थायिभावों के जो कारण, कार्य और सहकारिकारण होते हैं वे यदि काव्य या नाट्य में प्रयुक्त होते हैं तो क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव कहे जाते हैं और विभावादि से अभिव्यक्त स्थायिभाव ही रस कहलाता है।' रसाभिव्यक्ति की इस प्रक्रिया को आ. अजितसेन ने बड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया है
नवनीतं यथाज्यत्वं प्राप्नोति परिपाकतः।
स्थायिभावो विभावाद्यैः प्राप्नोति रसतां तथा।।' अर्थात् जिस प्रकार परिपाक हो जाने से नवनीत ही घृत रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार स्थायिभाव विभावादि के द्वारा रस स्वरूपता को प्राप्त हो जाता है। वस्तुतः काव्य के पढ़ने या सुनने से जो आनन्द की प्राप्ति होती है वह रस ही है। इन रसों की संख्या सामान्यतः नौ मानी गई है-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त। शृंगार आदि आठ रस तो निर्विवाद मान्य रहे हैं, परन्तु शान्त रस के सम्बन्ध में