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अनेकान्त-57/1-2
उपमा- उपमा अर्थालंकारों में प्रमुख एवं सादृश्यमूलक अलंकारों का आधार है। आ. विद्यासागर द्वारा प्रयुक्त उपमाओं में सरलता, सुन्दरता एवं स्वाभाविकता सहज ही झलकती है। यथा
मोदेऽमुनाहमधुना नासानन्दनेवेवाभ्रमधुना। लता कोकिलो मधुना नन्दनो जननी स्तनमधुना।।
-भावनाशतक, 37 अर्थात् जिस प्रकार घ्राण को आनन्द प्रदान करने वाले आम्रमकरन्द से कोयल, माँ के स्तन के दुग्ध से बालक और जल से लता प्रसन्न होती है, उसी प्रकार मैं इस समय इस (त्याग धम) से प्रसन्न होता हूँ।
यहाँ पर त्याग धर्म उपमेय, आम्रमकरन्द, माता का दूध, एवं जल उपमान हैं। इव वाचक शब्द और प्रसन्न होना साधारण धर्म है। अतः यहाँ पूर्णोपमा है।
उत्प्रेक्षा- उपमेय की उपमान के साथ तादात्म्य संभावना को उत्प्रेक्षा कहते हैं। उत्प्रेक्षा की छटा आ. विद्यासागर के शतक साहित्य में इतस्ततः दृष्टिगत होती है। यथा
निजनिधेर्निलयेन सताउतनोर्मतिमता वमता ममता तनोः। कनकताफलतो त्युदिता तनौ यदसि मोहतमः सविताऽतनो।।
-निरञ्जनशतक, 10 प्रस्तुत श्लोक में भगवान् के शरीर में प्रकट हुई स्वर्ण जैसी आभा के कारण मोहान्धकार को नष्ट करने के लिए उनमें सूर्य की संभावना की गई है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है। रूपक-उपमेय और उपमान का अभेदारोप रूपक अलंकार कहलाता है। यथा
करणकुञ्जरकन्दरं स्वरससेवनसंसेवितकन्दरम्। त्वा स्तुवे मेऽकं दरं कलय गुरो! दृकृषिकन्द! रम्।।
-श्रमणशतक, 85 यहाँ इन्द्रियों पर हाथियों का, दृक् (सम्यग्दर्शन) पर कृषि का आरोप किया