________________
अनेकान्त-57/1-2
33
प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। यहाॅ मिथ्यात्व का अनुभाग अनंत गुणा हीन होकर एक मिथ्यात्व प्रकृति के तीन टुकड़े हो जाते हैं - मिथ्यात्व, सम्यग्गमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति ।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर कोई जीव पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से चौथे असंयत गुणस्थान में, कोई पाँचवे देशसंयत गुणस्थान में तो कोई जीव सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में जाते हैं । इसका कालअंतर्मुहूर्त काल में से अधिक से अधिक छह आंवली और कम-से-कम एक समय शेष रहने पर अनंतानुबन्धी क्रोधादि कषाय की कोई एक के उदय होने से जीव सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर दूसरे सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है वहाँ से गिरकर वह मिथ्यात्व में आ जाता है । उपशम सम्यक्त्व का काल पूरा होने पर दर्शन मोहनीय की उक्त तीन प्रकृतियों में से किसी एक का उदय अवश्य होता है ।
आत्मानुभूति पूर्वक आत्मप्रतीति - सम्यक्त्व की प्राप्ति की महिमा से सम्यक्त्व होते ही 41 निकृष्ट कर्म प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति चौथे गुणस्थान में हो जाती है। पहले में 16 और दूसरे में 25 कुल 41 कर्म प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति होती है । सम्यक्त्व होते ही मोक्ष मार्ग खुल जाता है और जीव सम्यक् श्रद्धान और ज्ञान के बल से ज्ञान-वैराग्यपूर्वक के द्वारा शुद्धात्मा एवं शुद्धोपयोग से कर्मक्षय कर सिद्धत्व प्राप्त करता है । यह सब शुद्धात्म लक्षित श्रुताभ्यास तत्त्व विचार-निर्णय, भेद-विज्ञान, स्व-पर की पहिचान, हिताहित के निर्णय पूर्वक शुद्धात्मा के अनुभव से ही होता है ।
- बी-369 ओ पी. एम. कॉलोनी, अमलाई, म. प्र.