________________
अनेकान्त-57:1-2
सुन्दर एवं हृदयग्राही वर्णन किया है, जो मननीय है
वस्तु विचारतध्यावते, मन पावै विश्राम रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभौ याकौनाम (छदान) अनुभव चिंतामणि रत्न, अनुभव है रस कूप
अनुभव मारग मोक्ष कौ, अनुभव मोख स्वरूप (18)। सम्पूर्ण जैनागम का लक्ष्य आत्मा के स्वरूप और उसकी उपलब्धि का मंगलमय मार्ग बताना है धवला, गोमट्टसार, लब्धिसार जैसे सिद्धान्त ग्रंथो में आगम पद्धति से एवं समयसार प्रवचनसार जैसे अध्यात्म ग्रंथों में अध्यात्म पद्धति से आत्मोपलब्धि की प्राप्ति के सूत्र वर्णित हैं जो आत्मयोगियों को अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव कराते हैं। आगम पद्धति कर्म सापेक्ष है और अध्यात्म पद्धति भाव-भावनात्मक पुरूषार्थ परक है। दोनों पद्धतियों का लक्ष्य त्रिकाली ध्रुव आत्मा के ज्ञान एवं आश्रय से शुद्धात्मा का अनुभव एवं सिद्ध-सम शिव स्वरूप होना है। इस कथन से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निर्मल पर्यायों की उत्पत्ति शुभाशुभ भाव एवं उपयोग के परे शुद्धभाव एवं उपयोग से होती है। आत्मोपलब्धि की अध्यात्म पद्धति :- अध्यात्म पद्धति में जीव-अजीव आदि द्रव्यों तत्वों एवं पदार्थो से भेद विज्ञान सहित द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म से भिन्न ज्ञायक आत्मा की स्वतंत्रता का भाव बोध कराकर शुभ-अशुभ योग और उपयोग के पार शुद्ध चैतन्य स्वरूप का अनुभव कराते हैं। इसका आधार है-सच्चा तत्त्व श्रद्धान, प्रतीति सहित जीवादिक तत्त्वों के स्वरूप का भाव भासन, आत्म स्वरूप में अंहबुद्धि का होना और पर्याय में अंहबुद्धि का अभाव, हित-अहित रूप भावों की पहिचान और वीतरागी देव-शास्त्र-गुरू-धर्म का श्रद्धान-ज्ञान। इस पद्धति में पहले देवादिक का श्रद्धान होता है, फिर तत्त्वों का चिंतवन-विचार होता है, फिर आपापर (स्व-पर) के स्वरूप का चितवन होता है पश्चात मात्र स्व-आत्मा का चितवन किया जाता है। इस अनुक्रम से पुसंषार्थ कर सच्चे मोक्ष मार्ग के अनुसार आत्मानुभव एवं सिद्धपद प्राप्त किया जाता है।