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अनेकान्त-57/1-2
पंचलब्धि सहित प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन आत्मानुभूति पूर्वक होता है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति उग्र पुरुषार्थ पूर्वक तत्वनिर्णय स्व-पर भेदविज्ञान, हित-अहित का ज्ञान, वीतरागी देव-शास्त्र-गुरू की श्रद्धा आदि में उपयोग लगाने वाले भव्य जीव को होती है। इससे कर्मो की शक्ति हीन होगी, कुछ काल में दर्शनमोह का उपशम होगा, तब तत्त्वों की यथावत प्रतीति आयेगी। जीव का तो एक मात्र कर्तव्य तत्व अभ्यास, तत्त्व निर्णय एंव श्रुताभ्यास ही है। ऐसा होने पर पंचसमवाय पूर्वक सम्यग्दर्शन स्वयमेव हो जाता है। तत्त्व विचार रहित व्यक्ति देवादिक की भक्ति करे, श्रुताभ्यास करे, व्रत-तप-जप करे तब भी उसे सम्यक्त्व नहीं होता और तत्त्वविचार वाला इनके अभाव में भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। इस वस्तुस्थिति की पुष्टि आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार की गाथा 79, 80 एवं 86 में सहज रूप से की है जो मूलतः पठनीय-मननीय हैं।
अनुभव शब्द अनेकार्थी है। लौकिक-अलौकिक सुख-दुःख के वेदन को अनुभव कहते हैं। विद्यमान संदर्भ में स्वसंवेदनगम्य आत्म सुख का वेदन स्वानुभव है (प्र. सं. टीका 42)। शुद्ध नय स्वरूप आत्मा की अनुभूति ही ज्ञान की अनुभूति है। अतः आत्मा में आत्मा को निश्चत स्थापित करके सदा सर्व और एक ज्ञानधन आत्मा है, इस प्रकार देखना चाहिये 'मैं ही यह आत्मा हूँ? ऐसे विकल्प विलय के पश्चात 'मैं स्वयं आत्मा हूँ' ऐसा सहज अनुभव/भावबोध होने पर आत्मानुभूति होती है। स्वसंवेदन आत्मा के उस साक्षात् दर्शन रूप अनुभव का नाम है जिसमें आत्मा स्वयं ही ज्ञेय तथा भाव को प्राप्त होता है (तत्वा. 161)। इन्द्रिय और मन दोनों के निरूद्ध होने पर अतीन्द्रिय ज्ञान विशेष रूप से स्पष्ट होता है। स्वसंवेदन गोचर आत्मा को स्वसंवेदन के द्वारा ही देखना चाहिये (तत्त्वा. 167)। आत्मा स्वसंवेदन ज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष होता हुआ भी केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष होता है। जो मुनि या गृहस्थ स्वसंवेदन ज्ञान से जानकर निजात्मा को ध्याता है उसकी मोहग्रंथि नष्ट हो जाती है (प्र.सार-ता.वृ.194)।
कविवर पं. बनारसी दास जी ने पदार्थो के यथार्थ ज्ञान से आत्मानुभव और मोक्षमार्ग में उसकी भूमिका के सम्बन्ध में समयसार नाटक की उत्थानिका में