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अनेकान्त-57/1-2
है तथा शुभ-अशुभ प्रवृत्ति या निवृत्ति रूप मन-वचन-काय की चेष्टा का उत्साह है वह योग का उदय है (स. सार 132-134)। अज्ञानमय परिणामों के कारण नवीन कर्मबंध होता है (स. सार. 135-136)। कर्मबंध और कर्मोदय, पुनः कर्मबंध...आदि की निरंतर प्रक्रिया चल रही है जो शुभाशुभ भाव की जनक है। ज्ञानावरणादिक कर्म आठ प्रकार के हैं जिनकी 148 उत्तर प्रकृतियाँ हैं। ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 9, मोहनीय 28 और अंतराय 5 ये 47 कर्म प्रकृतियाँ आत्मगुण को घातने के कारण अप्रशस्त प्रकृतियाँ कहलाती हैं। वेदनीय 2, आयु 4, नाम 93 और गोत्र 2, कुल 101 कर्म प्रकृतियाँ देशघाती हैं। इनमें 67 प्रशस्त और 53 अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार कुल अप्रशस्त कर्म प्रकृतियाँ 47+53=100 हैं। कर्म बंध के चार प्रकार हैं- प्रकृतिबंध, प्रदेश बंध, स्थिति बंध और अनुभाग बंध। विशुद्ध और संक्लेश परिणामों के निमित्त से प्रशस्त-अप्रशस्त कर्मो का बंध होता है।
कर्म बंध एवं उसके संक्षिप्त भेद-प्रभेद का उद्देश्य यह दर्शाना है कि आत्म स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान एवं स्थिरता के बाधक घटक या शक्तियाँ कर्मोदय का निमित्त है जो अज्ञानी जीव को पुनः कर्मबंध कराता है। इस दृष्टि से आत्म स्वभाव के प्रति जागरूकता ज्ञान एवं आत्म रमणता से कर्म की पूर्वबद्ध शक्ति को निष्प्रभावी/क्षय करना है। विभाव-भाव से स्वभाव-भाव की स्थापना का सूत्र है-शुद्धात्मा को जानकर, अनुभवकर शुद्धात्मा की प्राप्ति-उपलब्ध करना। शुद्धात्मा की उपलब्धि के निमित्त से पूर्व बद्ध कर्मों की शक्ति स्वतः उपशम/क्षय को प्राप्त होती है। उसके लिये आत्मा को कुछ करना नहीं पड़ता। दो द्रव्यों के मध्य वज्र की दीवार रूप अत्यंताभाव विद्यमान है। ____अज्ञान से ज्ञान, विभाव से स्वभाव या अशुद्धता से शुद्धता के शोधन के साधन भूत देशनालब्धि जन्य स्वाध्याय, तत्त्वचिंतन, तत्वनिर्णय एवं शुद्धात्मा की प्रबल भावना के साथ-साथ ज्ञानावरणादिक कर्म प्रकृतियों में जो विविध प्रकार से परिवर्तन, उपशम, क्षयोपशम या क्षय होता है वह भी ज्ञान का रोचक विषय है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में इनकी क्या-कैसी स्थिति स्वतः निर्मित होती है वह भी अध्ययन का विषय है। इसके अध्ययन से अचिंत्य शक्ति के