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आनन्द प्रवचन :
प्रौढ़ कवि जो शास्त्रों के बड़े भेोगो ज्ञाता थे, जिन्होंने स्वयं ग्रंथों की रचनाएँ कीं, तथा सुन्दर सुन्दर पाधों का निर्माण किया, वे भी - प्रभु! आप तर गए पर अब हमें भी तारो! आपकी सहायता से ही हो सकता है। प्रत्येक भक्त और संसार में विरक्त पुरुष ईश्वर से यह करता है। कवि सूरदास भी अपने इष्टदेव से कहते हैं :
अब मेरी राखो लाज हरि !
तुम जानत सब अन्तर्यामी करणी कछु न करी ।
औगुन मोसे बिसरत नाहीं पल हिस घरी घरी । सब प्रपंच की बाँध पोटली अपने शीश धरी । दारा सुत धन मोहन यो है सुध बुध सब बिसरी ।
'सूर' पतित को बेग उबारो अब मेरी नाव भरी ।
भगवान को हम 'तिण्णाणं तारयाणं' अर्थात् तरण तारण कहते हैं। 'दीवोत्ताणं' द्वीप के समान, भव सागर में डूबते हुए प्राणी को सहारा देने वाला मानते हैं इसलिये अपनी प्रार्थना में कहते हैं कि हमारे मस्तन पर सही भावार्थ में, हमारी आत्मा पर जो कषायों का, विषय-विकारों का और प्रमाद का आवरण तथा भारी बोझ पड़ा हुआ है इसे हटा दो। ताकि हमारी आत्मा भी हलकी होकर ऊपर उठ सके।
चड़ाव और उतार
हमारे शास्त्रों में स्वर्ग को ऊपर माना है और मोक्ष को उससे भी ऊँचा । तो कर्मों का भारी बोझ लिए हुए आत्मा ऊपर कैसे उठ सकती है? कमर में विशालकाय पत्थर बाँध लेने पर मनुष्य जल पर नहीं तैर सकता, डूब जाता है। उसी प्रकार कर्म रूपी पाषाण जो कि मेरू फांत से भारी है, उसके बोझ को लिए
हुए आत्मा ऊँची कैसे उठ सकती है? उपर चढ़ने में कठिनाई होती है, नीचे उतरने में नहीं। नीचे उतरना हो वृद्ध व्यक्ति जो लाठी के सहारे चलता हो, वह भी आसानी से उतर सकता है, किन्तु ऊँचाई पर चढ़ने में तरूण पुरुष भी हाँफ जाता है। आशा है आप मेरे कहने का अभिप्राय समझ गए होंगे कि स्वर्ग, मोक्ष ऊपर हैं और नरक नीचे की ओर अर्थात् नरक की तरफ उतरना आसान है पर ऊपर स्वर्ग तथा मोक्ष की ओर चढ़ना कठिन ।
इसीलिए हम प्रार्थना करते हैं कि हम में ऊपर चढ़ने की शक्ति आए तथा कर्मों से सामना करने का साहस पैदा हो पर यह तभी हो सकेगा, जब हमारी प्रार्थना सर्वान्तःकरण से होगी। प्रार्थना के साथ हमारा मन भी बोलेगा। केवल जबान से की जाने वाली प्रार्थना कारगर नहीं हो रुकती प्रार्थना के स्वरों में शक्ति नहीं होती, शक्ति होती है उनके पीछे छिपी हुई दृढ़ भावनाओं में।
भगवान को निमन्त्रण
प्रार्थना धर्म का ही एक अंग है, मन को स्वच्छ और शुध्द बनाने का