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• मानव जीवन की महत्ता
दया कौन पर कीजिए, का का निर्दय होय । साँई के सब जीव हैं, कीरी झुंजर होय ॥
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कैसी दिव्य दृष्टि थी उनकी! संसार की समस्त आत्माओं को आत्मवत् समझते थे अतः विचार करते थे किससे द्वेष ? सभी तो परमात्मा की संतान हैं, उनके ही अंश हैं। फिर हमें क्या अधिकार किसी को भी दुःख या पीड़ा पहुँचाने
का ?
ऐसी दृष्टि ही कर्म-बंध से बचा सकती है। अन्यथा राग और द्वेष तो ऐसी चीजें हैं जो कि तुरन्त ही आत्मा से चिपक जाती हैं। किस प्रकार चिपकती हैं? यह आचारांग सूत्र की टीका में बताया गया है जैसे एक व्यक्ति ने अपने घर के बाहर चबूतरे पर पैर धोये और उसके पश्चात् अन्दर गया। पैर गीले होने के कारण घर के फर्श पर की सूक्ष्म रच उनके पैरों से चिपक जाती है। उसी प्रकार राग-द्वेष भी आत्मा से अति शीघ्र चिपक जाते हैं।
किन्तु महापुरुष इससे बचने का शयन करते हैं। जिस प्रकार मनुष्य घर के अन्दर फर्श पर बिछी हुई रज को खाडू से साफ कर देता है उसी प्रकार महान आत्माएँ भी राग-द्वेष रूपी कचरे को सामायिक प्रतिक्रमण तथा अन्य शुभक्रियाओं के द्वारा साफ करते हैं। घर का कचरा अगर बाहर नहीं निकाला जाय तो वह बढ़ता चला जाता है अतः गृहस्थ एक समय ही झाडू लगाकर नहीं रह जाता, वह सुबह शाम दोनों वक्त कचरे की सफाई करता है।
इसी प्रकार हमारे यहाँ सुबह भी प्रतिक्रमण करना पड़ता है तथा शाम को भी श्रावक और साधु दोनों के लिए यही विधान है। जो भव्य आत्मा अपनी सम्यक् साधना के द्वारा इस राग-द्वेष रूपी कचरे को पूर्णतया साफ कर देती है, दूसरे शब्दों में इन आभ्यंतर शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेती हैं वे ही 'जिन' कहलाते
हैं।
'जिन' कितने प्रकार के
"ठाणांग सूत्र" में तीन प्रकार के 'जिन' कहे गये हैं।
१) अवधिज्ञानी जिन देवता अवधिज्ञानी चिन कहलाते हैं। पुण्योपार्जन के कारण ही वे देव गति प्राप्त करते हैं। तथा शास्त्रकार उन्हें अवधिज्ञानी जिन कहते हैं।
२) मन: पर्यायज्ञानी जिन - मनः पर्याय ज्ञान मुनिराजों को होता है। मुनिराजों के अलावा अन्य किसी को यह प्राप्त नहीं हो सकता। तथा मुनियों में भी वे ही उसे प्राप्त कर सकते हैं, जो अप्रमादी हों। सम्यक् रूप से समय का पालन करते हों तथा चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर चुके हों।
मन: पर्यायज्ञान जिन्हें होता है वे कहाँ तक के प्राणियों के विषय में जान सकते हैं, इस विषय में बताया है ढाई द्वीप के अन्दर जिसमें जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड,