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आनन्द प्रवचन : भाग १
• [२६३]
परलोक की कमाई कर लेंगे।
ऐसा विचार करने वाले बड़े भ्रम में रहते हैं क्योकि तृष्णा तो आकाश के समान अनन्त है जो कि कभी भी शांत नहीं होती। एक-एक दिन करते वृध्दावस्था आ जाती है और उसके पश्चात् जीवन की अन्तिम अवस्था भी। किन्तु लोभ की आग कभी बुझ नहीं पाती वह तो अधिकाधिक प्रज्ज्वलित होती जाती है।
एक उर्दू कवि ने इसीलिये कहा :
मुँह से बस न करते हरगिज खुदा के बंदे । इन हरीसों को खुदा गर सभी खुदाई देता ।। लोभियों को अगर ईश्वर सारे जगत की खुदा के बन्दे मुँह से बस नहीं कहते।
मिल्कियत सौंप दे तब भी ये
यानी उसमें भी अधिक पाने की लालसा करते हैं। ऐसे पुरुष उस धन के स्वामी नहीं कहला सकते वस्न् धन ही उनका स्वामी कहलाता है। वे अर्थ का उपयोग नहीं करते किन्तु अर्थ ही उनका उपभोग करता है। वे धन का जितना संचय करते हैं, उससे कई गुना अधिक उपार्जन करने की आकांक्षा रखते हैं। इस वजह से धन से प्राप्त होने वाली प्रसन्नता जनके अधिक धन पाने की लालसा से ढक जाती है।
वास्तव में देखा जाय तो लोभी व्यक्ति अत्यन्त करुणा का पात्र होता है। वह सुख की सामग्री प्राप्त करके भी सुख से सदा वंचित ही रहता है। लोभ उसके सभी सुखों का नाश करके केवल दुख, लालना, तृष्णा जनित संताप और चिन्ता ही उसे देता है। उसका सारा जीवन ही हाय-हाय करते बीतता है। इसीलिये एक कवि उसे चेतावनी देता है :
गर हिरसो-हवा के फंदे में तू अपनी उमर गंवाएगा,
न खाने का फल देखेगा, न पीने का सुख पायेगा।
इक दो गज कपड़ा तार सिवा कुछ संग न तेरे जाएगा,
ऐ लोभी बंदे ! लोभ भरे, तू मरकर भी पछताएगा।
वस्तुतः लोभी व्यक्ति जिस प्रकार इस लोक में सुख से वंचित रहता है, उसी प्रकार अगले भव में सुख को प्राप्त नहीं कर पाता । मृत्युकाल आ जाने पर जब उसे यह लगता है कि यह सारी सम्पत्ति मुझसे छूट रही है, तो उसकी दशा बड़ी दयनीय हो जाती है और धन पर नही हुई गहरी ममता के कारण मरकर नरकगामी होता है।
भगवद्गीता में बताया भी है :