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हटा दो।
आनन्द प्रवचन भाग १
अर्थात् दूसरों के अपवाद रूपी धान्ट को चरने वाली वाणी रूपी गाय को
दूसरों को अपशब्द कहना, अपवाद निन्दा करना एक प्रकार का धान्य कहा गया है। शस्य का अर्थ धान्य ही होता है। तो निन्दा तथा अपवाद रूपी धान्य को वाणी रूपी गाय न चरे मनुष्य के 1 यही प्रयत्न करना चाहिए ऐसी शिक्षा आचार्य ने दी है। यानी, औरों को कटु और अपशब्द मत कहो तथा किसी की निन्दा मत करो। बन सके तो गुण ग्रहण करो अन्यथा मौन रहो। पराई निन्दा और विकथा में वाणी का दुरुपयोग करना मनुष्य त बड़ी भारी भूल है।
उसे सदा ध्यान रखना चाहिए कि चब वह साधु साध्वी श्रावक श्राविका अथवा अन्य किसी भी प्राणी की निन्दा करने के लिए या उसके दोष दर्शन के लिए अपनी तर्जनी अंगुलि बताता है तो बकी तीन अंगुलियाँ स्वयं उसकी अपनी ही तरफ संकेत करती हैं। वे कहती हैं- परों की अपेक्षा स्वयं तुम्हारें में अधिक अवगुण हैं, अधिक दोष हैं।
इसलिए बन्धुओ, हमें कभी भी औप्रं की ओर अंगुलि नहीं उठानी चाहिए तथा अपनी वाणी रूपी गाय को पूर्ण रूप से अपने काबू में रखना चाहिए। अन्यथा वह एक गलियार गाय के समान इधर-उधर मारती हुई फिरेगी और तुम्हें नित्य प्रति उलाहने सुनने पड़ेंगे। सन्त तुकाराम जी ने भी कान है :
"ओढालाच्या संगे सात्विक नाडले ।"
अर्थात् ओढ़ाल यानी हराम का खाने वाले जानवर के मालिक को उपालम्भ सुनने पड़ते हैं। भले ही मालिक निर्दोष हैं, उसके हृदय में औरों का नुकसान कराने की भावना नहीं है पर उसका जानकर अगर ओढ़ाल हो जाता है, गले में लकड़ी और पैरों में रस्सी बाँध देने पर उसे तोड़-तोड़कर दूसरे के खेतों में घुसकर धान्य खाता है तो उसे लोगों के उलाहने सुनने पड़ते हैं।
इसीलिये सन्त ने कहा है कि अग्नी वाणी रूपी गाय को अपने वश में रखो, उसे इधर-उधर औरों की निन्दा और अपवाद रूप धान्य को मत चरने दो। अन्यथा लोग तुम्हें बुरा-भला कहेंगे। सिक्खों के धर्म-ग्रन्थ में कहा भी हैं:
जित बोलिये पति पाईए, सो बोल्या परवाण। faक्का बोला बिगुच्चणा, सुन मूर्खमन अजान ॥
अर्थात ऐसी वाणी ही बोलने योग्य है, जिससे मनुष्य सन्मान पाये। हे मूर्ख और अज्ञानी मन! कठोर भाषण करके अपमानित मत हो ।
बुद्धिमान पुरुष इसीलिये सदा बहुत सोच-विचार कर बोलता है ताकि प्रथम उसके शब्दों से किसी को खेद न पहुँचे, दूसरे वह स्वयं अपमानित न हो। एक