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• सुनहरा शैशव
[३२०] को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार बालक का हृदय भी प्रत्येक गुणावगुण को ग्रहण करता है। ऐवन्ताकुमार में माता-पिता के डाले हुए उत्तम संस्कार ही थे, जिनके कारण उसमें अतिथि को अपने घर लाने की भावना हुई तथा भगवान महावीर के दर्शन करते ही साधु बनने की इच्छा जागी।
आठ वर्ष की कच्ची उम्र में संयोग प्राप्त करते ही उसका पूर्णतया लाभ उठाया। एक कहावत है :
'बूढे तोते राम-राम नहीं पढते।' अर्थात् अगर उन्हें राम-राम बोलना सिखाना है तो उनकी लघु वय में ही सिखाना पड़ेगा।
इसी प्रकार अगर बालक का भाष्यि उसके माता-पिता को उज्ज्वल बनाना है तो उसके लिए उसकी बाल्यावस्था में ही प्रयत्न करना पड़ेगा। बड़ा हो जाने के बाद वह माता-पिता की शिक्षाओं और संस्कारों को ग्रहण नहीं कर सकेगा। इसके अलावा अगर बाल्यावस्था में ही उत्तम संस्कार बालक के हृदय में घर कर गए तो कभी गलत मार्ग ग्रहण कर लेने पर भी तनिक सा संयोग पाते ही वह फौरन चेत जाएगा। कैसे लोग है ये?
शेखसादी जब छोटे थे, अपने पिता के साथ एक बार मक्का हज करने के लिये जा रहे थे। पिता के साथ पूरा काफिला था। काफिले का नियम था - आधी रात को उठकर प्रार्थना अवश्य करा।
शेखसादी भी इस नियम का बाबर पालन करते थे। पर वे प्राय: देखते थे कि कुछ व्यक्ति समय पर उठकर प्रार्थना न! करते।
इसलिए एक दिन आधी रात के1 सादी ने अपनी प्रार्थना के बाद भी लोगों को सोते हुए देखकर पिता से कहा -
"पिताजी! ये लोग कितने आतम्सी हैं? देखिये, न समय पर उठते हैं और न प्रार्थना ही करते हैं।"
पुत्र की बात सुनकर पिता ने घोड़ा फटकारते हुए कहा -- "अरे बेटा! सादी! तू भी न उठता तो अच्छा होता। जल्दी उठकर दूसरों की निन्दा करने से तो न उठना ही बेहतर था:"
पिता की बात सुनते ही शेखसाशे चेत गए और उसी क्षण ज्होंने जीवन भर के लिये किसी की भी निंदा न करने का त ले लिया। समय का मोल
संस्कारशीलता का प्रभाव ऐसा से होता है। एक ही चेतावनी सुसंस्कारी को सही मार्ग पर ले आती है। इसलिये बालक को समय पर संस्कार युक्त बनाना