Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 336
________________ • नेकी कर कूएँ में डाल! [३२६) हैं। यही हाल आज के मकानों और दीवानों का भी है। अर्थात् पुराने समय में मकान सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत बनाये जाते थे आज के समान दिखावे की दृष्टि से नहीं। तो मिश्र का बादशाह कारूँ जब अपनी गद्दी पर था, उस समय देश में भयंकर अकाल पड़ा। लोग भूखों मरने लगे। अनेक व्यक्ति अपने बादशाह के पास दौडे गये और उनसे प्रार्थना की -. "हुजूर! हम लोग भूखों मर रहे हैं। आप सम्राट् हैं! अपनी प्रजा की रक्षा कीजिये तथा अनाज के कोठों में से थोड़ा-थोड़ा हमें दिलवाइये ताकि हम जिन्दा रह सकें।" किन्तु बादशाह ने क्या उत्तर दिया? नकारात्मक रूप में गर्दन हिलादी और कहा - 'खजाने भरे पड़े हैं तो क्या है तुम्हारे लिए हैं? उनमें से एक दाना भी तुम्हें नहीं मिलेगा। "तुम जियो तो मेरी बला से और मरो तो मेरी बला से। यहाँ से निकल जाओ!" धन के लालच में अंधा बना हुआ कारूँ यह भूल गया कि राजा प्रजा के पिता के समान होता है। उसका सर्वप्रथम कर्तव्य प्रजा की पुत्रवत् रक्षा करना ही है। प्रजा के बहते हुए आँसू भी उसके हृदय को पिघला नहीं सके, और उसने एक पाई भी प्रजा-हित के लिए नहीं निकाली और एक दाना भी किसी मरते हुए प्राणी को नहीं दिया। किन्तु उसके अपार धन से आखि क्या लाभ हुआ? एक बार उसी मिश्र की मूषा नामक नदी में भयंकर बाढ़ आ गई और अपार धन का स्वामी का अपने खजाने समेत बह गया। न धन रूसको मरने से बचा सका और न ही वह अपने धन की रक्षा कर सका। केवन हाय-हाय करते हुए मरना ही उसके हाथ आया और अनन्त कर्मों का बंध करके दुर्गति में जाना पड़ा। रामचरित मानस में कहा भी है : जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी। जो राजा अपनी प्रजा को दुखी रहता है, वह अवश्य ही नरक का अधिकारी बनता है। बादशाह का धन समेत बाद में बह गया पर अपने हाथोंसे धन के द्वारा नेकी का कोई कार्य नहीं कर सका। धन की गतियाँ तीन होती हैं ---दान, भोग, और नाश। धन का सर्वोत्तम उपयोग उसका दान करना है। दीन-दुखियों की सेवा में लगाना और अभावग्रस्त प्राणियों के अभाव को दूर करना ही धन का सच्चा सदुपयोग करना है। दूसरा उपयोग उसका भोग करना है। जो कि प्रायः व्यक्ति करते ही हैं। पर जो सूम व्यक्ति यह भी नहीं को, अर्थात् न दान देते हैं और न धन

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