Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 315
________________ • [३०५] आनन्द प्रवचन : भाग १ [२६] RADIOR058080808500RPIROINSIDE S Renuman HDAIBISODOOSITOR धर्म का हस्य धर्म का रहस्य andal ModalRam00SAMRODDRESpe M धर्मप्रेमी बन्धुओ,माताओ एवं बहनो! एक दिन मैंने एक संस्कृत के कंक का विवेचन करते हुए बताया था कि मनुष्य के पास भले ही ऐश्वर्य न हो, शारीरिक सौंदर्य न हो तथा शक्तिसम्पन्नता भी न हो, किन्तु अगर उसका हृदय . सदगुणों से भरा हो और उसकी भावनाएँ धर्ममय हों तो उसे संसार का अधिक वैभवशाली शुरुष मानना चाहिये। ऐसा क्यों? इसलिये कि धर्म के अन्दर ही समस्त कलाएँ सम्पूर्ण बल और असीम सुख निहित हैं। गौतमकुलक ग्रन्थ में एक गाथा है - __ "सव्वा कला धम्मकला जिणाई।" समस्त कलाओं को धर्म कला जीत लेती है। शास्त्रों में पुरुषों की बहत्तर कलाओं का तथा स्त्री की चौसठ कलाओं का वर्णन मिलता है। किन्तु अगर पुरुष ने बहार कलाएँ सीख लीं पर एक धर्म कला नहीं सीख पाई तो वे सभी कलाएँ निरर्थव मानी जाती हैं। धर्म कला के अभाव में उसकी अन्य सभी कलाएँ शून्यवत हो जाती हैं। धर्म कला अन्य समस्त कलाओं की शोभा है। अनेक कलाओं के सीख लेने पर भी अगर एक मुख्य कला न सीखी जाये तो सब अन्य कलाएँ किस प्रकार गौरर्थक साबित हो जाती हैं, यह एक उदाहरण से भी स्पष्ट हो जाती है। तैरने की कला नहीं सीखी एक प्रोफसर किसी विशाल पाट काली नदी को पार करने के लिए एक नाव में बैठे और मल्लाह ने नाव को खेना प्रारंभ किया। नाव थोड़ी दूर चल पाई थी कि प्रोफेसर साहब ने आसमान की ओर देखते हुए मल्लाह से प्रश्न किया - 1 "क्या तुम नक्षत्र विद्या जानते हो?'| "बाबूजी! मैं तो नक्षत्रों के नाम भी नहीं जानता।" मल्लाह ने नाव चलाते

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