Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 323
________________ •[३१३] आनन्द प्रवचन : भाग १ देवताओं को भी परास्त किया। इसलिये हमें अपने धर्मबल को बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि पूर्व-कृत पुण्यों के बल पर तो में मानव-पर्याय, उच्चकुल, आर्यक्षेत्र, परिपूर्ण इन्द्रियाँ तथा सन्त-समागम आदि समस्त उत्तम संयोग मिले हैं। पर अगर इस जीवन में धर्म नहीं कमाया तो डिव्या गोर ही रह जायगा तथा हम खाली रहकर यहां से प्रयाण कर जायेंगे। जो भव्य ाणी इस बात को समझते हैं, वे चाहे सन्त हों या साध्वी, श्रावक हों या श्राविका पूर्णतया सावधान रहकर परलोक के लिये धर्म की पूँजी इकट्ठी करते हैं। गाथा का अन्तिम चरण है : “सव्वं सुहं धम्मसुहं भिणाई।" संसार के समस्त सुखों को धर्म-सुख जीत लेता है। इसका भावार्थ यही है कि संसार के जितने भी सुख हैं उनसे बढ़कर धर्मसुख है। हम देखते हैं कि संसार का प्रतीक प्राणी सुख-प्राप्ति की अभिलाषा रखता है तथा उसके लिए रात-दिन दौड-धूप करता है। दुख सभी को अनिष्ट है, कोई भी उसे पसंद नहीं करता। पर फिर भी सुख की प्राप्ति नहीं है। सुख मिलता क्यों नहीं है? अभी-अभी मैंने बताया है कि संसार का प्रत्येक प्राणी सुख-प्राप्ति की अभिलाषा से अहर्निश दौड़-भाग करता है, तथा अपनी सम्पूर्ण शक्ति इसी प्रयत्न में व्यय कर देता है। फिर भी बड़े आश्चर्य की बात है कि जोई भी अपने आपको सुखी अनुभव नहीं करता। किसी को धन का अभाव खटक रहा है। किसी को रोग सता रहा है। कोई पुत्र के अभाव में रो रहा है तो कोई व्यापार में घाटा लग जाने से बेचैन है। संक्षेप में चारों ओर दुख, शोक, जिन्ता, व्याधि तथा अशान्ति का ही वातावरण बना हुआ है। यह सब देखकर मन में प्रश्न उठता है कि जब प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है और उसके लिए ही प्रयत्नशील रहता है तो फिर मुख मिलता क्यों नहीं? बात यह है कि मानव जिन पदार्थों और जिन संयोगों में सुख मानता है वह सुख नहीं, केवल सुखाभास होता है। क्योंकि पर-पदार्थों का संयोग कुछ ही समय तक रह सकता है, उसके पश्चात् उसका प्रयोग अवश्यम्भावी है। जो जीव परिवार में सुख की कामना करता है। पुत्र न होने पर विभिन्न देवी-देवताओं को भेंट चढ़ाता है, उसका पुत्र उत्पन्न होने फ अल्पायु में ही उसके देखते-देखते इस लोक से प्रयाण कर जाता है, अन्य सजनों के संयोगों का भी यही हाल

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