Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 311
________________ • [३०१] आनन्द प्रवचन : भाग १ है। अर्जुन को उसमें अपना कर्तव्य करते जाने का उपदेश दिया गया है तथा कहा गया है कि उसके फल की पखाह मत करो। मनुष्य को अपना कर्तव्य कर्म करते जाना चाहिए उसके फल से भयभीत ने की आवश्यकता नहीं। उदाहरणस्वरूप एक श्लोक है : तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति फषः॥ - श्रीकृष्ण (गीता) फल की इच्छा छोड़कर निरन्तर वर्तव्य-कर्म करो। जो फल की अभिलाषा छोड़कर कर्म करते हैं उन्हें मोक्ष-पद अवश्य प्राप्त होता है। तो मेरे कहने का आशय यही है कि महाभारत का युध्द सम्पूर्ण रूप से कृष्ण की सहायता के बल पर ही कोता गया था। युध्द के दौरान उन्होंने अनेक प्रसंगों पर पाण्डवों का अभूतपूर्व मार्गदर्शन किया। तथा उसके परिणामस्वरूप उन्हें विजय प्राप्त हुई। वैसे भी कृष्ण वागदेव थे और शास्त्रों में बताया गया है कि वासुदेव अगर अपने जीवन में तीन सा साठ संग्राम करे तो भी कभी उसकी हार नहीं होती। गुण-ग्राहिता श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में बाल्यवतल से ही उत्तम कार्य किये थे। अनीति का नाश, अन्याय का प्रतिकार, अबलाओं को रक्षा और दीन-दरिद्रों का भरण-पोषण यही सब उनके कार्य थे। अपने भक्तों टेत लिए तो वे अपने समस्त कार्यों को त्याग कर अविलम्ब दौड़ पड़ते थे। भक्तों की भक्ति और गुणों का आकर्षण उन्हें अपनी ओर खींच ही लेता था। महाकवि सूरदास के शब्दों में उनका अर्जुन से कहना था : हम भक्तन के, भक्त हमारे। सुनु अर्जुन परितिग्या मेरी, यह व्रत टरत न टारे।। भक्त काज लाज हिय धारिक, पाँई पिणदे धाऊँ। जह जहँ भीर परै भक्तन पै, तहँ नहै जाड छुड़ाऊँ। जो मम भक्त सों बैर करत है, सो निगरी मेरो। देखि बिचारि भक्त हित कारण, हौकत हो रथ तेरो।। कहते हैं - 'अर्जुन! भक्त मेरे है। और मैं भक्तों का हूँ। यह मेरी अटल प्रतिज्ञा है कि मैं अपने भक्तों के संकट का निवारण करूँगा। इसीलिये जहाँ-जहाँ भी उन पर मुसीबत आती है मैं नंगे पैर दौड़ा जाता हूँ, और उन्हें दुख से मुक्ति दिलाता हूँ। मेरे भक्त का जो दुश्मन होता है वह मेरा भी दुश्मन बन जाता है। देख ! इसीलिये मैं आज इस युध्द में सारथी बन्फर तेरा रथ हाँक रहा हूँ।"

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