Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 301
________________ • [२९१] आनन्द प्रवचन : भाग १ उनके पौरुष तथा शौर्य पर निर्भर होता है। जो व्यक्ति दुखी, असहाय, संकटग्रस्त्र प्राणियों की सहायता के लिए तत्पर रहते हैं, अनाथ तथा अबला नारियों के शील की रक्षा में कटिबध्द हो जाते हैं प्राणपण से उसके निवारण में जुट जाते हैं वे सच्चे पुरुषार्थी कहलाते हैं। पुरुषार्थी और शूरवीर पुरुष अपने समाज और देश की रक्षा में कभी पीछे नहीं रहते। अपने पुरुषार्थ के द्वारा ही दे इच्छित वस्तु की प्राप्ति करते हैं, तथा विजय श्री का वरण करके ही छोड़ते हैं। कहा भी है : , पुरुषार्थियों के लिए दूर क्या है? अर्थात् समस्त प्रकार की सिध्दियाँ उनके समीप ही होती हैं। "किं दूर ववसायिनाम् ?" कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्मक प्राणी को अपने पुरुषार्थ पर विश्वास रखना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करता है, अर्थात् अपने पुरुषार्थ पर पूर्ण भरोसा रखता है उसके लिए सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति तो क्या स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति भी दुर्लभ नहीं होती। निज पुरूषार्थ से मुक्ति एक बार भगवान महावीर वन में ध्यानस्थ खड़े थे कि एक ग्वाला आकर बोला - "मेरे बैल यहाँ चर रहे हैं। इनका ध्यान रखना।" पर ध्यान कौन रखता? भगवान तो अपनी समाधि में लीन थे। उधर बैल भी चरते-चरते कहीं दूर निकल गए। ग्वाले ने आकर जब अपने बैलों को वहाँ नहीं पाया तो क्रोधित होकर भगवान को मारने के लिए उद्यत हुआ। पर उसी समय इन्द्र वहाँ आए और उन्होंने ग्वाले को वहाँ से भगा दिया। और तत्पश्चात् भगवान महावीर से कहा - "भंते ! आपकी साधना में कोई बाधा और संकट न आ पाए, इसलिये मैं आपकी रक्षार्थ आपके समीप ही रहना चाहता हूँ।" किन्तु भगवान ने क्या उत्तर दिया? बोले - "देवेन्द्र! किसी और की सहायता से मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है। वह तो स्वयं के पुरुषार्थ से ही मिल सकती है।" भगवान के वचनों से स्पष्ट हो पाता है कि मानव को अगर सिध्दि प्राप्त करनी है तो उसे अपने पुरुषार्थ को जागृत रखना चाहिए। सचा मानव वही है जो सांसारिक क्षेत्र में अपनी भुजाओं की शक्ति पर विश्वास करे तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में अपनी आत्माकी अनन्त शक्ति पर। तभी उसकी प्रत्येक मनोकामना पूर्ण हो सकती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346