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• गुणानुराग ही मुक्ति-मार्ग है
[२७४] से नफरत क्यों? इससे तो साबित होता है कि तुम सच्चे अर्थों मे गुणवान या विद्वान् नहीं हो। केवल विद्वत्ता का वाना पहने हुए ईर्ष्यालु व्यक्ति हो। तथा तुम्हें गुणवान कहना ही गुणों का अपमान करना है।।
इसीलिये श्लोक में आगे कहा है :
सच्चे गुणी और गुणानुरागी मनुष्य मिलना बड़ा दुर्लभ है। ये दोनों चीजें एक ही स्थान पर नहीं मिल सकतीं। व्यक्ति स्वयं गुणवान् हो तथा दूसरों के गुणों को देखकर आंतरिक प्रसन्नता का अनुभव करता हो तो उससे बढ़कर अच्छाई और क्या हो सकती है? छिद्रान्वेषण मत करो
कविकुल-भूषण पूज्यपाद श्री तिलांकऋषि जी महाराज अपने एक कवित्त के द्वारा प्राणी को सदुपदेश देते हैं कि तू औरों की निंदा मत कर, औरों के दोष मत देख! अगर देखना ही है तो अपने स्वयं के दोष देख! जिससे आत्म-शुद्धि हो सके। काव्य इस प्रकार है :
छिद्र पर देख निंदा करे केम, छोड़ के छिद्र सुगुण लहीजे। बबूल देख के काँटा ग्रहे मत,छाया ते शीतल होय सहीजे॥ तुच्छ असार आहार है धेनु को. क्षीर विगय तामें सार कहीजे।
तिलोक कहत स्वछिद्र को टालत, काहे को अन्य का छिद्र ग्रहीजे॥
कहा गया है ' हे प्राणी! तू कारों का छिद्रान्वेषण क्यों करता है? पर दोष दर्शन करके उनकी निन्दा करले से जुझे कौन सा लाभ होने वाला है? कोई नहीं, अत: दूसरों के दोष देखना छोड़कर उनमें जो गुण हैं केवल उन्हें ही ग्रहण करना सीख।'
'बबूल का पेड़ तेरे समक्ष है तो क्या यह आवश्यक है तु उसमें से काँटे ग्रहण करे ही? नहीं, काँटों को छूने व आवश्यकता नहीं है। असह्य धूप है, पैरों में जूते नहीं हैं, तथा पास में कोई अन्यवृक्ष नहीं है तो दो घड़ी तू बबूल की छाया में बैठकर विश्राम कर। शूल रख्त पर हैं तो रहने दे। छाया में तो शूल नहीं है? तू केवल छाया को ही क्यों नहीं देखता? काँटों को किसलिए देखे जा रहा है? बबूल के शूल-रूपी छिद्रों को देखने से मुझे क्या लाभ है? और न देखे तो कौन सी हानि है? फिर ठार्थ का कार्य करना ही किसलिये? उसे न करना ही अच्छा है।' वह तो अज्ञानी व्यक्तियों का कार्य है कि :
दोष पराया देखि के, चला हसत हसंत।
अपने याद न आवई, जिाका आदि न अंत॥ अर्थात् - दूसरे में तो अगर एक भी दोष दिखाई दे जाय तो व्यक्ति हँसने लगता