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• गुणानुराग ही मुक्ति-मार्ग है
[२७८] नहीं बन सकता, जितना कि एक गुणवान युवक। और एक निर्गुणी पुरुष सम्मान नहीं पा सकता, जितना कि एक गुणवती नारी। गुणों की दृष्टि से पुरुष और स्त्री में कोई भेद नहीं माना जाता।
उदाहरणस्वरूप हम सभी प्रात:काल के समय में सोलह सतियों के नाम लेते हैं, उनका स्मरण करते हैं। आप पुरुष हैं, श्रावक हैं, और हम साधु। फिर हमें सतियों के नाम लेने की क्या जरूरता है? क्यों हम उनको स्मरण और वन्दन करके अपने हृदय में प्रसन्नता और सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं।
केवल इसलिये कि उनमें शील, संयम और तपादि महान गुण थे। उनके गुणों का ही स्मरण किया जाता है और उनके गुणों को ही नमस्कार सब करते हैं। पुरुष और स्त्री की देह तो नश्वर है किन्तु गुण सदा अमर रहने वाले हैं। देह मरती है गुण नहीं मरते।
संक्षेप में प्राणी अपने गुण से महान् बनते हैं। वैभव-शाली, वृद्ध पुरुष या ऊँची-ऊँची पदवियां प्राप्त कर कुर्सी धार बन जाने से नहीं। कहा भी गया है
गुणैरुत्तमत्ता यान्ति, नीचैरासनमंस्थितैः। प्रासादशिखरस्थोऽपि, काकः क गरुडायते॥
-चाणक्य
अर्थात् - गुणों से ही मनुष्] महान होता है, ऊँचे आसन पर बैठने से नहीं। महल के ऊँचे शिखर पर बैठने से भी कौआ गरुड़ नहीं हो सकता।
कहने का अभिप्राय यही है कि महत्त्व केवल गुणों का होता है,लिंग या वय का नहीं। हम श्रमणों में तो अगर एक व्यक्ति तीस या चालीस वर्ष का भी हो पर गुणवान और योग्य न हो तो उसे दीक्षा का अधिकारी नहीं माना जाता किन्तु अगर एक बालक कुशाग्र बुद्धि, ना और गुणवान हो तो उसे साढ़े आठ वर्ष की उम्र के पश्चात् ही दीक्षा दी जा सकती है। ऐसा शास्त्र कहते हैं।
आप की सरकार का तो नियम है कि अठारह वर्ष की उम्र होने पर नौकरी में ले लेना और तीस वर्ष अअवा जो भी समय नियत किया गया हो उसके पश्चात् रिटायर कर देना। सरकारी नौकरी में केवल डिगरियों को देखा जाता है, वहाँ आत्मिक गुणों से कोई मतलब नहीं। व्यक्ति में हों चाहे नहीं।
पर हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। गात्र अगर योग्य है, उसमें उत्तम गुणों का निवास है तो साढ़े आठ वर्ष की उम्र से साठ वर्ष की उम्र तक भी वह दीक्षा ले सकता है। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि यहां रिटायर होने का काम ही नहीं है। जीवन के अन्त तक भी वह सुख-शांति और अपनी शारीरिक योग्यता अनुसार संयम का पालन करे, कर्मों की निर्जरा करता हुआ सुगति प्राप्ति