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दान न देने का परिणाम
एक कवि ने अपने श्लोक में बताया है कि दान न देने से मनुष्य को क्या-क्या हानियाँ उठानी पड़ती हैं। श्लोक इस प्रकार है:
आनन्द प्रवचन भाग १
लक्ष्मी दायादाश्चत्वारः, धर्म- राजापि तस्कराः । ज्येष्ठ पुत्रायमाने न, त्रयः कुप्यंति ग्रांधवाः ॥
लक्ष्मी के चार पुत्र होते हैं। धर्म, राजा, अग्नि और तस्कर । इनमें से ज्येष्ठ पुत्र का अगर अपमान किया जाय तो अन्य तीनों न्धु क्रोधित हो जाते हैं।
आप लोगों की समझ में बात आई नहीं होगी। आए भी कैसे ? ये कवि लोग बातें ही इस प्रकार करते हैं। सीधी बात करना तो जानते ही नहीं ठीक है न ?
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तो कवि के कहने का अर्थ यह है कि धन के अथवा लक्ष्मी के चार
पुत्र हैं धर्म, राजा, अग्रि और चोर। इनमें से
अगर पहले का अर्थात् ज्येष्ठ
पुत्र धर्म का अपमान किया जाय तो बार्क सब क्रोधित हो जाते हैं। अब प्रश्न
हमारे सामने यह है कि धर्म का अपमान कैसे होता है ?
धर्म का अपमान तब होता है जब मनुष्य
रीति तजी अनरीति करे जु सत्य असत्य विज्ञान नहीं
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हिमाहित बैन नहीं चित धारे। उर धर्म अधर्म समान विचारे ॥
अर्थात् जो मनुष्य नीति का त्याग करके अनीतिपूर्ण कार्य करता है। जिनागम तथा महापुरुषों के द्वारा कहे गए हितकारी वचनों का अनादर करता है। सत्य और असत्य के अन्तर को नहीं समझता तथा अधर्म को ही धर्म मानकर क्रोध, कपट, हिंसा तथा असत्य आदि दुर्गुणों को अपनाकर दान, शील, तप और उत्तम भावनाओं से परे रहता है तो समझना चाहिये कि वह धर्म का अपमान करता है।
दूसरे शब्दों में परोपकार तथा थान-पुण्य करना ही लक्ष्मी के ज्येष्ठ पुत्र धर्म का दूसरा नाम है। जो व्यक्ति लोग और लालच के वशीभूत होकर केवल धन संचय करते रहते हैं। उसे दीन-दुखी और पीड़ाग्रस्त प्राणियों के लिये खर्च नहीं करते, यानी दान में नहीं देते तो धर्म का अपमान होता है और इसके कारण धर्म के अन्य तीन बन्धु कुपित हो जाते हैं।
परिणाम यह होता है कि धर्म-कार्य में व्यय न किये जाने वाले तथा अनीतिपूर्वक अत्यधिक इकट्टा कर लिये जाने वाले धन को प्राजा छीनना प्रारम्भ कर देता है।
आज हम देखते हैं कि सरकार इनकम टैक्स, सैलटैक्स, सुपर टैक्स, वैल्थ टैक्स आदि नाना प्रकार के टैक्स लगाकर अधिक धन इकट्ठा करने वाले लोगों से पैसा छीनती है। अधिक क्या कहा जाय व्यक्ति के मर जाने पर भी मृत्यु-टैक्स