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अमरत्वदायिनी अनुकम्पा
[२५०] देव का भी अधिकार नहीं हो सकता।
सुदर्शन श्रावक के उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा तथा समता दैवी शक्ति है तथा हिंसा आसुरी। पर आसुरी शक्ति कितनी भी अधिक क्यों न हो, अन्त में तो उसे दैवी शक्ति से परास्त होना ही पड़ता है।
सुदर्शन सेठ ने अर्जुनमाली को अपनी हत्या करने के लिये दौड़कर आते हुए देखा। किन्तु उनके हृदय में उसके प्रति तनिक भी क्रोध की भावना नहीं आई। उलटे उनका हृदय अनुकम्पा से भर गया कि इसकी आत्मा पापों के बीज से कितनी भारी होती जा रही है और इसके कारण इसे कितने कष्ट जन्म-जन्मातरों तक भुगतने पड़ेंगे।
इन शुद्ध भावों के परिणामस्वरुप ही उन्हें तत्क्षण उपसर्ग से मुक्ति मिल गई और भगवान के दर्शनार्थ उन्हें अतले नहीं जाना पड़ा। अर्जुनमाली भी साथ गया और उसने भगवान से दीक्षा ग्रहण कर संपनी आत्मा का कल्याण किया।
कहने का अभिप्राय यही है कि मानव के हृदय में अपने कट्टर दुश्मन या कि अपने हत्यारे के प्रति भी अनुकम्पा की भावना होनी चाहिए। तभी उसे मनुष्य जन्म रूपी वृक्ष का फल मिलेगा। दया से होने वाले लाभ
दया का महत्व बताते हुए एक जैनाचार्य संस्कृत में लिखते हैं :क्रीडा भूःसुकृतस्य दुष्कृतरजः संहार बात्या भवो -
दन्वन्त्रीर्व्यसनाग्नि मेगपटली संकेत दूती श्रियाम्। निःश्रेणित्रिदिवौकसः प्रिय सखी मुक्ते: कुगत्यर्गला,
सत्त्वेषु क्रियतां कृष्णव भवतु क्लेशेरशेषैः परैः॥ आचार्य ने दया के अनेक आश्चर्यजनक लाभ बताए हैं। इसमें सर्वप्रथम तो यह बताया है कि दया सुकृत्यों को क्रीड़ा भूमि है। अर्थात् इसके विद्यमान रहने पर यही अन्य अनेकानेक पुण्यकार्य किये जा सकते हैं। जब तक उसमें अन्य शुभ भावनाएँ पनप नहीं पाती।
दूसरा लाभ बताया है - दया दुष्कृत्य रूपी पापों की रज को उड़ाकर ले जाने वाली हवा के समान है। जिस प्रकार तेज हवा मिट्टी को उड़ाकर ले जाती है, उसी प्रकार अनुकम्पा रूपी ला पाप रूपी मिट्टी को हटा देती है तथा आत्मा को निर्मल बनाती है।
तीसरा लाभ - जन्म-मरण रूपी इस संसार सागर में दया ही वह नौका है जिसके सहारे से जीव इस समुद्र को पार कर सकता है। प्राणी अपने हृदय में करुणा और दया की भावनाओं को स्थान देता है उससे कभी भी कुकर्म होना