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अमरत्वदायिनी अनुकम्पा
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अमरत्वदायिनी अनुकम्पा)
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो!
जैनाचार्य श्री सोमप्रभसूरी ने एक श्लोक में मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष के छ: फल बताए हैं। उनमें से पहला फल जिनेन्द्र पूजा और दूसरा फल सदगुरु की सेवा भक्ति करना है। इन दोनों के विषा में पिछले दो दिनों में विस्तृत प्रकाश डाला जा चुका है। आज हम तीसरे फल सत्वानुकंपा का विवेचन करेंगे।
मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष का तीसरा फल है सत्वानुकंपा। इसका अर्थ है - प्राणी मात्र पर अनुकंपा करना अर्थात् दया भाव रखना। शास्त्रों में कहा गया है
"सव्वेपाणा सव्वेभूया सब्वेगोवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा।"
-आचारांग सूत्र ----- सभी प्राणी, मूत तथा जीव सत्व हैं, इनकी हिंसा नहीं करनी चाहिये। दशवकालिक सूत्र में भी यही बात कही गई है--
"अहिंसा निउणा दिट्टा सवभूएसु संजमो।" अहिंसा कैसी होनी चाहिए? प्राणी, भूत मात्र पर संयम रखना, यानी किसी भी जीव को नहीं सताना। इसे सत्वानुकंपा करते हैं। सत्व क्या?
"सन्तो भाव: सत्व।" जो हमेशा टिक कर रहने वाला जीव है उसे ही सत्व कहते हैं। प्राण, भूत, या सत्व इस पर अनुकम्पा अर्थात् करुणा और दया का भाव रखना ही भगवान का आदेश है।
अनुकम्पा का शाब्दिक अर्थ आर करना है तो कहा जा सकता है - दुःख के कारण जो जीव थर-थर काँप रहा है, उसकी भयाकुल स्थिति को जानकर उसके प्रति दयार्द्र हो जाना अनुकम्पा बहलाती है। दूसरे शब्दों में किसी भी दुखी प्राणी का अवलोकन कर हृदय में कमान होता और उसे दुख से मुक्ति दिलाने की भावना का जाग्रत होना अनुकम्पा है। सम्यक्दृष्टि मनुष्य का हृदय ऐसा ही सात्विक सुकोमल तथा अनुकम्पा युक्त बन जाता है।