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बलिहारी गुरु आपकी...
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HINDI
SODNERDISAIVARIORATION
SEARNA
((बलिहारी गुरु आपकी...)
धर्म प्रेमी बंधुओ! माताओं एवं बहनों!
कल के प्रवचन में मनुष्य जन्म लपी वृक्ष के छ: फलों का उल्लेख किया गया था। उनमें से पहला फल जिनेन्द्र राजा था और उसके विषय में आपको कल विस्तारपूर्वक बताया गया था।
आज हमें मनुष्य जन्मरूपी वृक्ष के दूसरे पल 'गुरुपर्युपास्ति' पर विचार विमर्श करना है। 'गुरु-पर्युपास्ति' में दो गद हैं एक गुरू और दूसरा पर्युपास्ति। गुरु शब्द का अर्थ है सदगुरु। यह आप नोग सभी जानते हैं, पर गुरु के अन्य और भी अर्थ होते हैं।
व्याकरण शास्त्र में स्वर दो प्रकार से माने गए हैं। हस्व और दीर्घ। हस्व स्वर होते हैं - अ, इ, उ तथा दीर्घ स्वर या गुरू कहलाते हैं - आ, ई, ऊ, ए, ऐ और ओ, औ आदि। तो आप समझ गए होंगे कि व्याकरण में दीर्घ को गुरू कहते हैं।
किन्तु ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से खा जाय तो वहाँ दीर्घ को गुरू नहीं कहा जाता। वरन् बृहस्पति नाम का एक ग्रह है। जिसे गुरु कहते हैं। तो ज्योतिष-शास्त्र की दृष्टि से गुरु का अर्थ बृहस्पति लेना पड़ेगा।
अब गुरु शब्द का तीसरा अर्थ लिया जाएगा। धर्म-शास्त्र की दृष्टि से गुरु धर्मोपदेशक को कहा जाता है। अर्थात् जो धर्म के विषय में पढ़ाये, धर्म के विषय में समझाए और धर्म विषयक उपदेश दे वह गुरु माना जाएगा।
तो गुरु शब्द का अर्थ व्याकरण को दृष्टि से अलग है, ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से अलग है और धर्मशास्त्र की दृष्टि से भी अलग है। हमें यहाँ गुरु शब्द को धर्मशास्त्र की दृष्टि से ही लेना है क्योंकि हमारा विषय आध्यात्मिक-विवेचन को लेकर है।
अब हमारे सामने पर्युपास्ति: शब्द आता है। पर्युपास्ति: में 'परि' और 'उप' उपसर्ग है। परि का अर्थ चारों तरफ से. प का अर्थ है नजदीक, तथा अस्ति । का अर्थ है रहना। इस प्रकार पर्युपास्ति का अर्थ हुआ नजदीक रहना। पर नजदीक किसके रहना? इसका उत्तर पहले ही दे देया गया है, गुरु पर्युपास्ति: अर्थात्