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आनन्द प्रवचन : भाग १
"अज्ञान - तिमिरान्थानां ज्ञानाञ्जनशलाकया,
चक्षु रून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।" - अज्ञान के तिमिर से अन्ध बन हुए चक्षुओं को ज्ञानाञ्जन की शलाका से जो उन्मीलित कर देते हैं - वे गुरु सदैव नास्कार के योग्य हैं। पुण्य और पाप की करामात
संसार में दो ही चीजें हैं। पुण्य और पाप। पुण्य का संचय होने से मनुष्य को प्रत्येक प्रकार के उत्तम संयोग मिलते है तथा पापों का उदय होने से उत्तम संयोग भी बदलकर दुखदायी बन जाते हैं।। इस विषय में एक गुजराती कवि का कथन है
जगत माँ पुण्य थी चढ़ती, जगत माँ पाप थी पड़ती। चहेते पुण्य थी मलतु, चहेते पाप थी टलतुं॥ जगत मों पुण्य थी लीला, जगत मौ पाप थी खीला।
बुद्धयब्धि पुण्य माँ रहेळु, सदा सुन शास्वत सहेर्बु।।
कवि बुद्धिसागर जी महाराज का कथन है कि पल्ले में पुण्य है तो दिन ब दिन चढ़ती होती है और पाप का उदय होता है तो चढ़ा भी गिर जाता है।
यादव वंश, जिस वंश का नाम लेन में भी लोग डरते थे, जिसमें बलभद्र के अवतार बलराम जी और वासुदेव के अवतार श्रीकृष्ण जी हुए। जिस वंश में तीर्थकर नेमिनाथ जी जैसे अवतारी पुरुष और रुक्मिणी तथा सत्यभामा जैसी महासतियाँ हुई। क्या उस वंश का पुण्य कम था? नहीं. असीम पण्य था उसके पल्ले में। किन्तु जब पुण्यवानी क्षीण हो गई तो उसी कूल के लड़के द्वैपायन ऋषि को सताने की तैयारी करने लगे। परिणाम यह हुआ कि अंत में द्वारिका नष्ट हो गई।
जिस द्वारिका नगरी का निर्माण देताओं ने किया था, उसे ही पाप का उदय होने पर देवताओं के द्वारा जल जाना पड़ा। किसी ने कहा है :
"अत्युग्र पुण्यपापानां दैवफलमश्नुते।" - तीव्रातितीव्र पुण्य एवं पाप का फल यहाँ पर हम मिल जाया करता है।
पुण्य के प्रभाव से हृदय की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं, बिगड़ते हुए कार्य बन जाते हैं। किन्तु पाप का उदय हंति पर बनते हुए कार्य भी बिगड जाते हैं और कोई भी तमन्ना पूरी नहीं हो पाती। पुण्यवान को अनायास ही धन-वैभव तथा यश कीर्ति प्राप्त होती है, किन्तु पुण्यहीन को अच्छे कार्य करने पर भी किसी न किसी बहाने निन्दा का पात्र बनना पड़ता है।
कवि ने आगे कहा है "जगत मां पुण्य थी लीला, जगत मां पाप थी खीला।" अर्थात् जिसके पास पुण्य का संचय है, वह जहाँ भी जाता है, लीला-लहर