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• बहुपुण्य केरा पुँज थी सब कुछ हार गया था। कुछ भी दाव पर लगाने को नहीं था। अगर उससे पहले आपने यहाँ कथा पढ़ी होती तो मैं भी चौधराईन को युधिष्ठिर के समान दाव पर लगा देता। बताइये, अब वह लाभ मुझे कैसे मिल सकता है?'
चौधरी जब यह बातें महात्मा जी से कह रहा था, चौधराइन उसके पास ही खड़ी थी। पति के बातें सुनकर वह झोधित हो उठी और बोली -- 'महात्मा जी! मुझे भी कथा सुनने में देर हो गई। अगर आपने कुछ दिन पहले यह कथा बाँची होती तो मैं भी इस राक्षस के सा क्यों जिन्दगी बर्बाद करती। द्रौपदी के जैसे और भी पति कर लेती तथा सती कहलाने लगती।"
बेचारे महात्मा जी अपने कथा-वाचना का ऐसा सुन्दर परिणाम देखकर चुप-चाप वहाँ से चल दिये।
तो भाइयो! आपको उपदेश इस प्रकार नहीं सुनने हैं। बल्कि उपदेशों के द्वारा अपनी आत्म-चेतना को जगाना है। जन्म-जन्मान्तरों से हृदय में घर किये हुए अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह और माया आओदे के पटलों को हटाना है। तभी हमारी पुण्यवानी का लाभ हम उठा सकेंगे। पूर्वजन्मों में जिन पुण्यों का हमने संचय किया, उनके परिणामस्वरूप तो इस जन्म में जैसा कि मैने अभी बताया था, आर्यक्षेत्र, उचकुल, जैन जाति तथा संत-समागम आदि अनेक सुन्दर सुयोग मिले हैं। किन्तु पुण्य की उस पूँजी को अगर हम इसी जन्म में समाप्त कर देंगे और बढ़ायेंगे नहीं तो आगे काम कैसे चलेगा।
इसलिये, हमें पूर्ण दृढता, आस्था और विश्वास के साथ अपने धर्ममय जीवन को उत्तरोत्तर विकास की ओर ले जाना है ताकि अन्त में, यह कहकर पश्चात्ताप न करना पड़े कि :
बहु पुण्य केरा पुँज थी शुभ देह मानव नो मल्यो। तो ये अरे भवचक्र नो आंटो न एके टल्यो।