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रक्षाबंधन का रहस्य
क्षत्रिय की परिभाषा देते हुए बताया गया है :
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"क्षतं दुःखं क्षतात् दुःखात ] त्रायते इति क्षत्रियः । "
क्षत्रिय वही है जो दुखियों के दुख का निवारण करे। बढ़े-बड़े राजा युध्द करते हैं वह किसलिये ? प्रजा के दुखों का निवारण करने के लिये प्रजावत्सल और न्यायी राजा के हृदय में सदा यही भावना रहती है कि उसके राज्य में एक भी व्यक्ति दुखी, भूखा या नंगा न रहे। जो राजा ऐसी भावना नहीं रखता तथा अपनी प्रजा के कष्ट निवारण का प्रात्न नहीं करता वह राजा, राजा नहीं कहला सकता। तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कहा है :
जासु राजप्रिय प्रजा दुखारी, से1नृप अवसि नरक अधिकारी । अर्थात् जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी रहती है, वह निश्चय ही नरकगामी होता है -
कहने का अभिप्राय यही है कि जलवार हाथ में रहते हुए भी जो व्यक्ति औरों के दुख दूर नहीं करता। वह अपनी तलवार का अपमान करता हैं और उसे तलवार रखने का अधिकार नहीं। प्राचीन काल में क्षत्रिय अपने कर्तव्य का किसी भी हालत में त्याग नहीं करते थे। प्रत्येक क्षत्रिय आवश्यकता होने पर अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी संकटग्रस्त प्राणियों के संकट का निवारण करता था तथा शरणागत की रक्षा करने से कभी मुँह नहीं मोड़ता था चाहे वह शत्रु पक्ष का ही क्यों न होता।
राजा अधिकतर क्षत्रिय ही होते थे और इसीलिये उन पर जनता को खुशहाल रखने की तथा उनके दुःखों को दूर करू की जिम्मेदारी होती थी । वीरत्व क्षत्रियों का ही मुख्य गुण माना जाता है। वैश्य तरंग कलम चला सकते हैं, जलवार चलाना नहीं जानते। तलवार के धनी क्षत्रिय ही होते हैं, और इसीलिए वे अपने वीरत्व का रंचमात्र भी अपमान नहीं सह सकते। एक प्रदाहरण
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क्षत्रियत्व का सबूत
एक राजा के दरबार में दो क्षत्रिय युवक आए और उन्होंने राजा से अपनी सेना में भर्ती करने की प्रार्थना की।
राजा ने उन्हें कभी देखा नहीं था अतः परदेशी मानकर कहा - "तुम लोग मेरे राज्य के निवासी नहीं हो अतः तुम्हारे वीरत्व और क्षत्रियत्व का मैं कैसे विश्वास करूँ ?
अपने क्षत्रियत्व और वीरत्व के बारे में राजा का अविश्वास जानकर दोनों युवकों के गौरव को बड़ी चोट पहुँची। उन्होंने राजा से कहा
"महाराज! हम आपको अपने वीर और क्षत्रिय होने की किसी से गवाही