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आनन्द प्रवचन : भाग १
• [२१७]
कविने कहा है -- 'अगर तुझे मुक्ति रूपी मेवा खना है, उस अमृत का आस्वादन करना है, तो ममता-रूपी दही का मन्थन कर ! तभी उससे शाश्वत सुख-रूपी मक्खन निकलेगा और उसे ग्रहण करने के पश्चात् तुझे किसी अन्य पदार्थ की आकांक्षा नहीं होगी।
किन्तु वह मक्खन निकलेगा कैसे? आम-स्वरूप में रमण करने से, महन चिन्तन-मनन करने से ही ज्ञान की ज्योति पय में जगती है। जब तक मानव सांसारिक पदार्थों में आसक रहता है, उसका हृदय आत्म-चिंतन में नहीं लगता।
और आत्म-चिंतन में लगे बिना, या आत्म-स्वरूप में रमण किये बिना मुक्ति का मेवा प्राप्त नहीं होता।
यह समय बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ है। मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता। अगर यह अवसर चूक गया तो फिर नरक में गये बिना छुटकारा नहीं होगा। तथा न जाने कितने समय तक उस नारकीय जीवन की यातनाओं को रो-रोकर भोगना पड़ेगा। किन्तु फिर पश्चात्ताप के सिवाय और क्या हो सकेगा? तभी तो कहते
मानुष जनम शुभ पाय के भुलाए मत,
ओसर गमाय चित्त, फेर पछिताऊंगो। किन्तु समय चूक जाने के पश्चात् तिर पश्चात्ताप करने से क्या हो सकता है? कुछ भी नहीं। इसलिए प्रत्येक मानव को अगर मुक्ति-रूपी अमृत फल की इच्छा हो तो कविने आगे कहा है :
अमृत फल की इच्छा हो तो बीज धर्म का बो जा।
कर नेकी का काम बदी से, अब तो दूर चला जा - "जिस मुक्ति-रूप अमरफल को प्राप्त कर लेने के बाद पुन: मरण का दुख नहीं भोगना पड़ता, ऐसे अमर-फल को अगर तुझे वास्तव में ही आकांक्षा है तो त आत्मा में धर्म का बीज बो ले। पर धर्म का बीज जमे कैसे? यह समस्या है। यह समस्या तभी सुलझेगी जब तू संसार के समस्त प्राणियों के प्रति सद्भावना रखेगा तथा नेकी के काम करेगा। बदी करते-करते तो अनेक जन्म बीत गए और अगर यही हाल रहेगा तो न याने कितने जन्म और बीत जाएँगे पर कहीं मुक्ति के आसार दिखाई नहीं देंगे। इसीलिए अब तू चेत और धर्म की आराधना कर। क्योंकि
"संसारो स मरुस्थले सुरसानास्त्येव धर्मात्परः।" इस संसार रूप विशाल रेगिस्तान में धर्म के सिवाय दूसरा कोई कल्पवृक्ष नहीं है।
किन्तु आवश्यकता है धर्म को मच्चे हृदय से धारण करने की। धर्म में