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आनन्द प्रवचन : भाग १
इसलिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है कि धर्म को उसके सधे रूप में ग्रहण किया जाय तथा प्रत्येक क्रिया केवल को निर्जरा की भावना से की जाय।
चाहे दान देना हो, चाहे शील का पालन कसर हो तथा तप ही करना हो, वे - सब इसलिये न की जायें कि दुनियाँ उसे दाने कहे, तपस्वी कहे और धर्मात्मा कहकर उसकी पूजा करे।
कर्मों से मुक्ति किसी भी कामना या गश-प्रतिष्ठा की इच्छा से धर्म किया जाने से नहीं होती। इन सबका त्याग करने से होती है : मुक्ति त्याग से मिलती है, भोग से नहीं।
'ज्ञाता धर्म कथा सूत्र' में शैलकराजर्षि का वर्णन आता है। एक बार राजर्षि बीमार हो गए। उनका उपचार करने के लिए उनका पुत्र मंडूक आया तथा वैद्यों के कथनानुसार उपचार किया गया। किन्तु स्वास्थ्य ठीक हो जाने पर भी वे खाने पीने में मशगूल रहे। परिणाम यह हुआ कि उनकी साधना में शैथिल्य आ गया किन्तु उनके सुयोग्य शिष्य पंथक की धैर्यता ने उन्हें पुन: स्थिर किया तथा वे खाने पीने की ममता का त्याग करके मुक्ति के अधिकारी बने। संक्षेप में उनका उद्धार तभी हुआ जबकि उन्होंने खाद्य पदार्थों की ममता का त्याग किया
जिन महापुरुषों की इन्द्रियाँ और मन उनके वश में हो जाते हैं तथा चित्तवृत्ति आत्म-स्वरूप में रमण करती है, और जो भोगों से विरक्त होकर संयम को अपनाते हैं वे ही भव्य-प्राणी अपने कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष प्राप्त करते हैं।
संयम नेकी का मार्ग है, इस पर कुलकर ही आत्मा विकास की ओर अग्रसर होती है। तथा कालांतर में मुक्ति का आनन्द प्राप्त करती है। भजन में कहा गया है -
सत्य धर्म की सेज बिछी है, सोना है तो सोजा।
कहे मुनि नंदलाल का शिष्य, मिले पक्ष की मोजां। भजन के रचियता हैं चर्चावादी नन्दलाल जी महाराज के सुशिष्य पूज्य श्री खूबचन्द जी महाराज ! जिन्हे आचार्य पदवी प्रदान की गई थी। बड़े ही आत्मार्थी संत थे। मुझे भी उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जब मैं छोटा था, तब वे एक बार रतलाम से बिहार करने पर मुझे पहुँचाने आए थे।
उन्हीं महान संत का कथन है - "देखो भाई ! 'सत्य-धर्म' की इस सुखकर शैय्या पर सोने की इच्छा हो तो विल्गब मत करो। इस शान्तिदायक शैया पर सोओगे तभी तुम्हें मुक्ति की मौज का अनुभव होगा।
वास्तव में ही अगर सत्य और धर्म का आचरण किया जाय तो संसार की कोई भी शक्ति मानव को शिव पुर पहुँचने से नहीं रोक सकती।
जिसके बिना समस्त जगत निस्सार और श्मशानवत् शून्य है, ऐसे धर्म !