Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 235
________________ • [२२५] आनन्द प्रवचन : भाग १ किन्तु ऐसा नहीं है, देवता तो स्वयं ही मानव जीवन के लिये तरसते हैं अत: उसकी श्रेष्ठता धनके अलावा किसी और बात में है। यह साबित हो जाता है। वह श्रेष्ठता क्या है, यह आप जानते हैं? वह है, उत्तमोत्तम करनी कर सकने की क्षमता में। मैंने यही बताया था कि मन्त्र्य चाहे तो देवत्व प्राप्त करता है, तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन कर सकता है और अपनी आत्मा को कर्म-मुक्त करके मोक्ष में भी जा सकता है। ऐसी क्षमता देवताधों में नहीं है। इसीलिये मनुष्य-जन्म को सभी जन्मों से श्रेष्ठ माना गया है। पर केवल मनुष्य शरीर मिल जाने में ही तो उसकी श्रेष्ठता साबित नहीं हो जाती। मनुष्य होकर भी अगर वह कुकगे कर-करके नरक में चला गया तो फिर क्या लाभ हुआ नर-देह पाने का। इसका लाभ तभी हासिल हो सकता है, और तभी इसकी श्रेष्ठता सचे मायने में मानी जा सकती है, जबकि मानव धर्माराधन करे, दान, शील तप और भावनामय जीवन व्यतीत करे तथा अपनी आत्मा को कर्म-भार से मुक्त करे। अन्यथा तो यह नरम्देह एक कोरे लिफाफे के समान ही कीमत-रहित मानी जाएगी। लिफाफे के अन्दर चाहे दो वाक्य । ही लिख आए हों तो उसका मूल्य होता है। पर अन्दर कुछ भी न हो, एक अब्द भी लिखा हुआ न हो तो आप उसे खोलकर प्रसन्न होंगे क्या? नहीं! खाली लिफाफे का कोई महत्त्व नहीं होता , उसका कोई मूल्य नहीं माना जाता। ठीन इसी प्रकार उत्तम क्रिया या उत्तम करनी किये बिना इस शरीर का भी कोई मूल्य नहीं है तथा इसे पाना न पाना समान है। जो प्राणी अपने जीवन को इस प्रकार निरर्थक बिता देते हैं उन्हें देखकर महापुरुष दुख से कह उठते हैं : दुर्लभं मानुषं जन्मामूल्य एकाऽपि तत्क्षणः। तथापि काकिणी तुल्यं तद्व्ययं कुर्वते जनाः।। मनुष्य का जन्म दुर्लभ है, उसका एक क्षण भी अमूल्य है। तो भी बड़ा दुःख है कि मनुष्य कौड़ियों के समान उसका व्यय करते हैं। मानव शरीर पर अनेकों कवियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की रचनाएँ की हैं। सभी ने मनुष्य-जन्म को उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न किया है। किसी ने इसे चरखे की उपमा दी है, किसी ने इसे रेल के समान बताया है जैसे : __इस काय की रेल, रेल #अजब निराली।' कवियों का प्रयत्न यथार्थ है तथा लिन्तनीय और मननीय है। प्रसिद्ध जैनाचार्य सोमप्रम ने अपने 'सूक्ति मुक्तावली' नामक संस्कृत ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न विषयों पर अनेक सुन्दर श्लोक लिखे हैं। उनमें के एक श्लोक में उन्होंने मानव शरीर को वृक्ष के समान बताया है तथा उसके छ: फल भी लिखे हैं। श्लोक है :

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