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है ? ऐसा विचार करें तब वह ज्ञान आत्मा कहलाती है।
ज्ञान का मूल्य बहुमूल्य रत्न से भी अनेक है। आत्मा में ज्ञान की ज्योति जलते ही मिथ्यात्वरूपी अंधकार का समूल नाश हो जाता है। श्री कृष्ण ने गीता में ज्ञान का महत्व बताते हुए कहा है :
आनन्द प्रवचन भाग १
यथैधांसि समिदग्निर्भस्मसात्कुरतेऽर्जुन । ज्ञानाप्रि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।
भगवद्गीता
हे अर्जुन! जैसे जलती हुई अग्नि ईंधना को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान रूपी अग्रि सम्पूर्ण कर्मों को जलाकर नष्ट कर देती है।
मानव का अस्तित्व आत्मा के सन्दर्भ में ही है। आत्मा के अतिरिक्त संसार में जो कुछ भी है, वह जड़ है तथा अनित्य हैं। अतः जब मुमुक्षु अपनी आत्मोन्नति अथवा मुक्ति के विषय में विचार करता है तो इसे स्वाभाविक रूप से ही आत्मा के विकास तथा विशुध्दि का विचार करना होता है है ? ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है :
पर यह सब कैसे हो सकता
"न ज्ञानात्परं चक्षुः ।"
भौतिक पदार्थों के और आध्यात्मिक कत्वों के ज्ञान के अतिरिक्त दूसरी कोई आँख इतनी शक्तिशाल 1 नहीं हो सकती है।
करते हैं।
स्वरूप को समझने के लिए
ज्ञान ही मानव की आत्मा का सबसे अधिक हितैषी है, अतः उसका प्रत्येक मनुष्य को पूर्ण उपयोग करना चाहिए। ज्ञान शाप्त करके भी अगर उसका उपयोग नहीं करता तो उसका ज्ञानी बनना सर्वथा निर्थक हो जाता है। संसार में मनुष्य चार प्रकार के होते हैं :
१). पहले तो वह, जो ज्ञान प्राप्त करके भी उसे जीवन में नहीं उभारते।
२). दूसरे वे जो शास्त्र - ज्ञानी न होकर भी जीवन में सिध्दान्त का साक्षात्कार
३) तीसरे वे जो शास्त्र ज्ञान भी प्राप्ता करते हैं, और सत्य का आत्मानुभव भी करते हैं तथा -
४) चौथे वे, जो न शास्त्र का अभ्यास करते हैं और न ही सत्य का आचरण करते हैं।
इनमें से दूसरे और तीसरे प्रकार के व्यक्ति श्रेष्ठ होते हैं। दूसरे प्रकार के व्यक्ति जो ज्ञान प्राप्त न करके भी सिध्दान्त का साक्षात्कार करते हैं, उनमें सहज ही करुणा, सत्य, परोपकार और सेवा के भाव पाये जाते हैं अतः वे अक्षर ज्ञान