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आनन्द प्रवचन भाग १
तो नहीं दिलवा सकते क्योंकि यहाँ हमें जानने वाला कोई नहीं है। किन्तु आप इस बात पर तो विश्वास कर ही सकते हैं कि जो व्यक्ति वीर और क्षत्रिय न हो वह इस प्रकार अपने प्राण कदापि नहीं दे सकता।"
यह कहने के साथ ही दोनों युवकों ने अपनी तलवारें एक दूसरे के हृदय के आर-पार कर दी और क्षण भर में ही अपने सधे क्षत्रिय होने का सबूत देते हुए चिर निद्रा में निम्मन हो गए।
समस्त दरबारी युवकों की ओर दौड़े पर युवक तो उसके समीप आने से पहले ही अपना कार्य समाप्त कर चुके थे। राजा यह देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। अपनी वीरता की इस प्रकार परीक्षा की वाले युवकों के लिए उसका हृदय महान् पश्चात्ताप से भर गया और उसी सम्प्र दरबार स्थगित कर उन दोनों सच्चे क्षत्रियों का अत्यन्त सम्मान और आदरपूर्वक अन्तिम संस्कार करने की लोगों को आज्ञा दी।
बंधुओ, इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि क्षत्रियों के वीरत्व का मुकाबला और किसी भी वर्ण का व्यक्ति नहीं कर सकता। ऐसे ही क्षत्रिय दीन-दुखी प्राणियों की रक्षा करने में समर्थ हो सकते हैं। तथा पद्य के अनुसार रक्षा बन्धन का त्यौहार क्षत्रियों को इसी बात की प्रेरणा देता है।
पद्य में आगे कहा है :
ब्राह्मण सेठ क्षत्रिय के बांधे, देखो रक्षा जाई रे । धर्म और धार्मिक की रक्षा, करो सदाई रे ।। रक्षा जाई है।
ब्राह्मण जो हैं, वे वैश्य और क्षत्रियों को राखी बाँधते हुए कहते हैं - 'धर्म और धर्मात्मा दोनों की रक्षा करो।' मचा धर्म पापों को समूल नष्ट करके मुक्ति का मार्ग प्रदर्शन करता है। वह किसी भी अन्य धर्म का विरोध नहीं करता । और वह सचा धर्म ही नहीं होता जो ऐसा करता है। कहा भी है:
धर्मो यो बाधते धर्म न स धर्मः कुधर्म तत्। धर्माविरोधी यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रमः ।
धर्म को बाधा पहुँचता है वह धर्म नहीं कुधर्म है। किन्तु
जो धर्म अन्य
जो धर्म का अविरोधी है, सत्य पराक्रमशील है, वही है।
तो सचे धर्म की रक्षा करना प्रत्येत व्यक्ति का कर्तव्य है। साथ ही धर्म का स्वयं कोई रूप नहीं होता अतः जिस व्यक्ति के हृदय में वह स्थित है ऐसे धार्मिक व्यक्ति की रक्षा करना भी अनिवार्य है। यहां पद्य में लिखा है
धर्म और धार्मिक की रक्षा करो सदाई रे !