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आनन्द प्रवचन : भाग १ शुभ कर्मों का उपार्जन कैसे हो?
बन्धुओं, अभी मैंने आपसे कहा है कि अशुभकर्मों का ऋण हँसते हुए सम-भाव से चुकाओ तथा साथ-साथ शुभकर्मों के उपार्जन का प्रयास करते रहो। अब संक्षेप में हमें यह देखना है कि शुभ-कर्मों का उपार्जन कसे हो सकता है?
शुभकर्मों का उपार्जन करने के लिए जीवन को धर्ममय बनाना आवश्यक है। तथा धर्ममय जीवन का प्रारम्भ दान से होता है। दान धर्म का प्रवेश द्वार है। इसमें प्रवेश किये बिना मुक्ति रूपी माल में नहीं पहुँचा जा सकता। तीर्थकर संयम ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक दान देते हैं। दान से हृदय उदार और निर्मल बनता है जो कि चारित्रिक गुणों का विकास करने के इच्छुक साधक के लिए आवश्यक है। दान के रूप में जो दिया जाता है वह वस्तुतः शुभ कर्मों के रूप में दूसरी ओर संचित होता जाता है। आपके अन्य व्यापारों में तो हानि की भी संभावना रहती है किन्तु दान देका जो पुण्य कमाया जाता है उसकी कभी हानि नहीं होती। इसलिये मुक्तहस्त से चितना और जैसे भी बन सके दान देने की भावना प्रत्येक मानव में होनी चाहिये। दान के समान अन्य कोई भी कार्य संसार में नहीं है। जैसा कि कहा जाता है :
“पृथिव्यां प्रवां हि दानं।" इस पृथ्वी पर दान ही सर्वोत्तम कर्म है। ...
दूसरा कार्य है 'सेवा'। इस अगुल्य मानव-भव को प्राप्त करके भी जो व्यक्ति अपने समय को सार्थक नहीं करता. अपना समय अन्य प्राणियों की सेवा में नहीं लगाता वह वास्तव में ही भाग्यहीन कहा जा सकता है। सेवा और वैयावृत्य करने से आत्मा निर्मल बनती है तथा अनेकानेटन पुण्य कर्मों का संचय होता है। सेवा का उपयुक्त समय
वासवदत्ता मथुरा की सर्वश्रेष्ठ नरकी और अनुपम सुन्दरी थी। एक दिन उसने अपने गवाक्ष से एक सुन्दर युवा मिक्षु को भिक्षा पात्र लिए उधर से गुजरते देखा। नर्तकी उसे देखकर मोहित हो गई और शीघ्रतापूर्वक सीढ़ियों से उतर कर नीचे आई।
नीचे आकर उसने पुकार - "भन्ते" भिक्षु ने धीर गति से समीप शकर अपना भिक्षा पात्र नर्तकी के आगे
, बढ़ा दिया।
नर्तकी बोली - "आप ऊपर पधारें! मेरा भवन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य और स्वयं मैं आपकी हूँ। स्वीकार करें।"
"मैं तुम्हारे पास फिर आऊँगा।"