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आनन्द प्रवचन : भाग १ नदी के सामने चलना तो कितना कठिन और असम्भव-प्रायः ही होता जाता है। इस पर भी चलना केवल दो-चार कदम ही नहीं, वरन् अगले किनारे और कवि के शब्दों में पेले पार पहुंचना है।
आगल नहीं है हाट वाणिया........सम्बल लीजो रे लार!
कितनी भाव-भरी बात है। मुक्ति-फ्ध के पथिक को कवि केवल मार्ग की कठिनाइयाँ ही नहीं बता रहा है। वह यह भी बता रहा है कि इस लम्बी मंजिल वाले बीहड़ मार्ग में कहीं दुकान या सिट नहीं है जिस पर तुम्हारे थकान से चूर हुए शरीर को विश्राम और कुछ उदरपू के लिए सामान मिल जाय। अत: तुम पहले ही चतुराई पूर्वक रास्ते के लिए पम्बल ले लो। अर्थात् खर्ची अपने साथ ले चलो।
वह खर्ची क्या है? शुभ कर्मों का संचय, पुण्यों का उपार्जन! शुभ कर्मों का सम्बल ग्रहण करके ही मुमुक्षु साधना-पथ को तय कर सकता है। महाभारत में कहा गया है -
शुभेन कर्मणा सौख्यं, दुःखं पापेन कर्मणा। कृतं फलति सर्वत्र, नाकृतं भुज्यते क्वोवेत्॥
- वेदव्यास शुभ कर्म करने से सुख और सप-कर्म करने से दुख मिलता है। अपना किया हुआ कर्म सर्वत्र ही फल देता है। बिना किये हुए कर्म का फल कहीं नहीं भोगा जाता।
इसलिए बंधुओ! पुण्यों का उपार्जन करो, वही तुम्हारे साथ जायेगा। भक्ति करो वह साथ जाएगी, सेवा करो साथ जाएगी, नाम-रमरण साथ जाएगा। आप देश, जाति और धर्म की सेवा करो, संघ की सेवा करो। धन-संपत्ति, शारीरिक सुख, मान-बड़ाई आदि की आकांक्षा न रखते हुए अहंकार से रहित होकर मन, वाणी, शरीर और धन के द्वारा संपूर्ण प्राणियों के हित में रत होकर उन्हें सुख पहुँचाने की चेष्टा करना सची सेवा कहलाती है। सेवा ही वास्तविक संन्यास है। संन्यासी अपनी मुक्ति का इच्छुक होता है किन्तु सेवा-व्रतधारी पुरुष परमार्थ की वेदी पर बलि दे देता है। सेवा किये बिना कोई मानव महामानव नहीं बन सकता। सेवा के परिणामस्वरूप ही अनेकानेक पुण्यों का पार्जन होता है, जो कि मुक्ति-रूपी मंजिल के यात्री का संबल बनता है।
इस मंजिल के राही को तीन कठिनाइयों से मुकाबला करना पड़ता है। प्रथम है मंजिल की अत्यधिक दूरी, दूसरी रास्ते की विकटता, और तीसरी एकाकी होना। आपको थोड़ा सा भी रास्ता तय करना हो तो सहयात्री की इच्छा करते हैं। क्योंकि साथी होने से मार्ग सुगमता से कर जाता है और कठिन मार्ग पर