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अनमोल सांसें... रहने दीजिये।"
सन्त बोले - "अच्छा तेरी इज्छा हो तो खुशी से रह, पर एक शर्त है : वह यही कि जब मैं कुछ बुरा कार्य करूँ, जब मुझे गालियाँ दिया करना।"
यह सुनकर व्यक्ति पानी-पानी हो गया तथा सन्त के चरणों मे लोट गया। नियम तथा नम्रता का ऐसा ही चामत्काफि प्रभाव होता है। जीवन में अगर यही एक गुण आ जाय तो अन्य अनेक गुणों का स्वामेव आविर्भाव हो जाता है। 'दशवकालिक सूत्र के नवें अध्ययन में भी कहा है ----- मूलाउ खंधप्यभवो दुमस्स,
खंधाऊ पच्छा समुविीत साहा। साहप्यसाहा विरुहंति पत्ता,
तओ सि पुष्पं च फां रसोय श्लोक में बताया है कि वृक्ष की जड़ मजबूत होनी चाहिए। जड़ मजबूत होने परही उसमें तना, शाखा, प्रशाखाएँ, पत्ते, फूल और फिर मधुर रस वाले फल लगेंगे।
इसी प्रकार विनय-गुण मजबूत और दृढ़ होने पर उसमें सदगुण रूपी फूल धीरे-धीरे लग जायेंगे अर्थात् जीवन में अन्य सदगुणों का आविर्भाव होगा। अन्य श्लोक में भी कहा गया है :
एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परां से मुक्खो।
जेण किति सुयं, सिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छई।।
धर्म-रूपी वृक्ष का मूल विनय । और उसका आखिरी फल मोक्ष है। जो व्यक्ति विनय के द्वारा श्रुत-ज्ञान को हृदयंगम कर लेता है, आवागमन को नि:शेषकर मोक्ष-पद को प्राप्त कर लेता है।
इसीलिए सुमति सखि चेतन से कहती है - कि 'तुम ज्ञान हासिल करो। अगर सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लोगे तो धीरे-धमिरे तुम्हारी आत्मा का कल्याण हो जाएगा। सुमति कहती है --- मुझे उस दिन सच्चा संतोष होगा जिस दिन तुम यह कहोगे
जा दिनते वाणी जिनराज की परी है करन,
ता दिनतें मेरे उर ज्ञान बोध जागो है। लगत अनित्य धन धाम काम हम आदि,
जग को स्नेह हियसी भूरि भागो हैं। भयो में वैरागी अभिलाधी ज्ञान आतम को,
शिवपद साधवे में, मो मन लागो है, अब तो अधीन लीन, भयो जिन धरम में,
अपीरिख याते देह ना सब त्यागो है।