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रक्षाबंधन का रहस्य
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वह यह भूल जाता है कि 'स्त्र' के सही अर्थ में उसका शरीर नहीं आता वरन् उसकी आत्मा आती है। शप्रेर तो उसने बहुत पाए हैं, और प्रत्येक बार वे छोड़ने पड़े हैं। कविवर्य पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज का कथन है
कबहुँ जीव यह पायो गज देहाथूल
कबहुँक लघु तन कंवो कहायो है। कबहुँक राजा होय शीश पै घसयो छत्र,
कबहुँक देव कभी नाक निगोद भव, कबहु विकल तन लेई दुःख फाशे है।
कहे अमीरिख ऊँच मच भवधारी जीव, काल ही अनन्त जगमाही यो गमायो है।
पद्य का अर्थ आप समझ ही गए होंगे कि किस प्रकार अनन्त काल से जीव ने नाना प्रकार के, हाथी जैसे बड़े, कुंथुआ जैसे छोटे, राजा जैसे वैभवशाली और भिखारी जैसे दरिद्र, देवता जैसे समृझिशाली और नारकीय जैसे असह्य यंत्रणाओं को भोगने वाले शरीरों को पाया है।
पर क्या वे शरीर उसके कहला सकते हैं? नहीं, समय के असीम सागर में एक बिन्दुवत् किसी शरीर को पाकर उसे अपना मानना बड़ी भारी भूल है। अगर कोई भी शरीर उसका अपना होता तो वह छूटता क्यों? शरीर अपना नहीं है इसीलिये वह छोड़ना पड़ता है। और उस पर दया करना व उसकी रक्षा करना 'स्व' की रक्षा नहीं कहला सकती। स्व-रक्षा
मनुष्य को 'स्व' का सही अर्थ अपने आत्मा से लेना चाहिये। उसे भली-भांति समझ लेना चाहिये कि उसकी आत्मा शोर से भिन्न है। शरीर की कितनी भी हिफाजत क्यों न की जाय, कितनी भी जगन से उसकी रक्षा क्यों न करें वह नष्ट हो जाता है। केवल आत्मा ही उसनी अपनी है, दूसरे शब्दों में वह स्वयं केवल आत्मा के ही रूप में है। अत: 'सा' दया और 'स्व' रक्षा में उसे अपनी आत्मा का ही ध्यान रखना चाहिए।
दुःख है कि भोला प्राणी नश्वर शरीर को कष्टों से बचाने का प्रयत्न तो करता है पर आत्मा को कष्टों से बचाने का प्रयत्न नहीं करता। अगर वह अपनी आत्मा की रक्षा का ध्यान रखे. उसे कर्मयोगों से बचाने का प्रयल करे तो फिर ये नाना प्रकार के शरीर ही धारण न करने पड़ें। इसीलिये आज रक्षा-बन्धन दिवस से उसे अपनी आत्मा की रक्षा करने की प्रेरणा लेनी चाहिये। आत्मा की कर्म-बन्धनों से रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिये।
प्रश्न यह है कि आत्मा की रक्षा तसे की जाय? आत्मा को विषय-विकारों