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आनन्द प्रवचन : भाग १
चन्द्र देखकर उ*
से किसा लगा आज में
__तो आसमान में पूर्ण-चन्द्र देखकर उसे अपने व्रत की याद आ गई और वह सोचने लगा आज मैं वेश्या से कोई व्यवधर नहीं कर सकता, अत: मुझे यहाँ से किसी प्रकार निकल भागना चाहिये। वह नीचे उतरा और वेश्या से बोला - "मुझे जंगल निपटने जाना है, अत: मैं बाहर जाऊँगा।"
वेश्या ने घर में ही स्थान बताया दित वह वहाँ चला जाए। पर कठियारा माना नहीं और शीघ्रता से बाहर चल दिया।
गठरी का उसे ध्यान आया पर यह सोचकर कि उसे माँगने पर वेश्या जाने नहीं देगी, वह सोने गठरी की वहीं छहकर चलता बना। स्वर्ण की अपेक्षा उसे अपने व्रत का महत्त्व अधिक लगा। और लगना भी चाहिए। संस्कृत में कहा
___'प्राणतेऽपि न भक्तव्यं, गुरुमाक्ष्वे कृतं व्रतम्।' गुरु की साक्षी के लिये हुए व्रत को प्राणांत होने तक भी निभाना चाहिए।
अर्थात् - प्राण भले ही चले जायें, प्रण नहीं टूटना चाहिए। कोई पूछ सकता है - 'क्या प्रण की कीमत प्राणों से भी अधिक है। उत्तर यही है कि कीमत वास्तव में ही प्राणों से भी अधिक है। प्राण तो जन्म-जन्म में मिल जाएँगे पर प्रण नहीं मिल सकता। तभी तो 'राम' ने कहा
'रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाये पर वचन न जाई।'
वचन का अथवा प्रण का ऐसा ही महत्त्व है। इसीलिए कानड़ वहाँ से बहाना बनाकर निकल गया।
इधर वेश्या उसी की प्रतीक्षा करती ही पर जब कठियारा लौट कर नहीं आया तो उसने स्वर्ण की पोटली ज्यों की ज्यों उठाकर एक ओर रख दी तथा • अगले दिन राजा के दरबार में पहुँचा दी और कहलवा दिया कि यह जिसका है उसे पहुँचा दिया जाय।
आपके मन में प्रश्न होगा कि वेश्या ने ऐसा क्यों किया? वेश्याएँ तो पैसे के लिए मरती हैं। पैसा ही उनका सगा होता है कोई भी आदमी नहीं। पर वह वेश्या भी एक नियम लिये हुए थी कि बिना हक का पैसा नहीं लेना। और वह अपने नियम की पक्की थी। अत: उसने छुआ भी नटिं।
जब राजा के पास स्वर्ण की पोटली पहुँची तो उसने डोंडी पिटवा दी कि दरबार में सोने की एक गाँठ आई हुई पड़ी है, जिसकी हो वह ले जाय। डोंडी सुनकर कठियारा आया और उसने अपनी पोठली माँगी।
राजा ने उसे देखकरके कहा -"तुम्बारी आकृति से तो ऐसा नहीं लगता कि यह धन तुम्हारा होगा। तुम्हारे पास यह कहाँ से आया?"