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.. अनमोल सांसें...
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सुमति चेतन को किस अवस्था में इखना चाहती है? उस विरक्तावस्था में जब वह कहने लग जाय कि जिस दिन से जिनराज की वाणी मेरे कानों में पड़ी है, उस दिन से ही मेरे हृदय में ज्ञान का प्रकाशहुआ है।
मुझे यह भवन, धन सांसारिक कार्य शादि सब व्यर्थ मालूम होता है। तथा मेरे हृदय से साँसारिक बन्धनों का तथा समस्त सम्बन्धियों का स्नेह भाग गया है, अर्थात् विलीन हो गया है।
अब तो मेरा मन संसार से विरक्त और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है तथा मोक्ष-मार्ग की साधना करने के लिए उत्कंठित हो रहा है। मेरी आत्मा जिन-धर्म की आराधना में लीन होना चाहती है। इसीलिए संसार का तथा शरीर का मोह मुझे नहीं रहा है। मैंने संसा के प्रति आसक्ति को त्याग दिया
बंधुओ, जब ऐसी ही स्थिति हमारी हो जाय, तब समझना चाहिए कि हमें सचा मार्ग दिखाई दिया है। हमारे लिए जीवन में सुख और दुख समान हो जाने चाहिए तथा मान और अपमान एक जैसे लगने चाहिए। ईश्वर को धन्यवाद
सन्त उसमान हैरो किसी गली से जा रहे थे कि एक मकान के झरोखे में से किसी ने उन्हें देखे बिना ही ऊपर से राख डाल दी। राख सन्त उसमान के सिर पर ही गिरी। हैरी ने राख झाड़ते हार आकाश की ओर देखा और कहा
'दयालु भगवन् ! तुझे धन्यवाद है। एक आदमी ने यह देखकर पूछ लिया - "महाराज! इसमें ईश्वर को धन्यवाद देने की क्या बात है?"
सन्त बोले - "भाई! मेरे जैसा पगी तो आग में जलाने लायक होता है। किन्तु उस रहम दिल ने तो मुझे राख से ही निपटा दिया।" प्रत्येक मोक्षाभिलाषी को इसी प्रकार आत्म-स्वरूप का चिन्तन करते हुए आत्मा की अनन्त शक्ति को जगाना चाहिए तथा सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्यारित्र की आराधना करते हुए निरासत भाव से साधना पर बढ़ना चाथि। तभी एक दिन यह आकगमन नष्ट करके शिवपुरी में पहुँचा जा सकेगा।