________________
जाणो पेले रे पार
[१२२]
इसलिये हम आपको साधु बन जाने के लिए नहीं कहते। हम यह कहते हैं कि चाहे आप गृहस्थाश्रम में रहो पर जल में कमलवत् रहो । संसार में आसक्त मत रहो। आत्मा के असली स्वरूप को मत भूलो। अपने विवेक और श्रद्धा को जागृत और दृढ़ रखो। ईश-स्मरण करो।
अभी तो लोगों को नाम स्मप्रण करने को कहा जाय तो बहाने बनाते हैं कि 'काम बहुत रहता है, समय ही नहीं मिलता।' जब दस मिनिट आत्मचिंतन करने की भी आपको फुरसत नहीं मिलको तो साधु बनकर सारा जीवन ही साधना और भक्ति में बिताना क्या आपके लिए संभव है? नहीं, पर ऐसे काम क्योंकर चलेगा? इस तरह तो अनेक जन्म बीत गये और यह मानव जीवन भी बीता जा रहा है। तथा इस प्रकार आत्मा जन्म और मरण के चक्र में पिसती जा रही है। आत्मा का गंतव्यस्थान यह संसार नहीं है, वरन् मोक्ष धाम है जो कि कवि के शब्दों में 'बहुत दूर...है ।
मंजिल दूर है
आप कोस दो कोस जाते हैं तब भी साथ में रूपये-पैसे, खाद्य सामग्री, पहनने के वस्त्र और वर्षा ऋतु हो तो बरसाती और छाते वगैरह लेकर चलते हैं। शीत ऋतु में ऊनी कोट, स्वेटर और रजाई गद्दे भी साथ में बाँधते हैं। किन्तु आत्मा को कहाँ जाना है? इसकी मंजिल कहाँ है ? इसका ध्यान है आपको ? और फिर रास्ता इसका कैसा है? एक मारकड़ी भजन में कहा भी है
उलट नदी के मार्ग चालणो, जाणो पेले रे पार । आगल नहीं है हाट बाणिया, संबल लीजो रे लार । भूलो मन भंवरा कांई भमे, मियो दिवस ने रात । माया रो लोभी प्राणियो, म दुर्गति जात.....। भूलो मन...... 1
बात वही की वही है, चाहे हिन्दी में कही जाय, मराठी में कही जाय, संस्कृत में कहीं जाय अथवा मारवाड़ी में कह दी जाय। जीवात्मा अनन्त काल से मोह-माया में फंसा है, और प्रमाद की नींद में सोया हुआ है। उसे जगाने का ही यह प्रयत्न है। जो व्यक्ति मोह से अन्धा हो जाता है वह, जो काम करना चाहिये, उसे नहीं करता और जिस कगत को नहीं करना चाहिये वह कर बैठता है। ऐसा करने से उसके उद्देश्य की पूर्ति कैसे हो सकती है ?
और फिर आत्मा को संसार मुक्त करने का उद्देश्य तथा उसके लिये किया जाने वाला प्रयत्न तो अत्यन्त कठिन है। कठिन ही नहीं, अगर यह भी कहा जाये कि पानी के प्रवाह के सामने चतना है, तो भी अतिशयोक्ति नहीं है। आप जानते ही हैं, जब सामने की हवा होती है आपको पैदल चलनें में या साइकिल पर चलने में भी कठिनाई महसूस होती है। तब फिर उमड़ती हुई तेज प्रवाह वाली