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• जाणो पेले रे पार
फिर यह किस प्रकार तय किया जा सकेगा
हमें भी साधु बनाएंगे क्या ?
बंधुओ, प्रवचन सुनते-सुनते और संत महात्माओं की चेतावनियों से घबराकर कोई भाई यही कह देगा कि, 'महाराज, आपने तो सिर में राख मल ली और साधु हो गए, अब हमें भी यही करने को कह रहे हैं क्या? हम भी साधु बन जाएँ अगर सभी साधु बन गए तो फिर भिक्षा कौन देगा ?
उत्तर में हमारा यही कहना है कि आपको मिक्षाचारी की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। साधु बनना इतना सहज नहीं है कि प्रत्येक साधु बन सके
शैले-शैले न माणिक्यं, मौलिकं न गजे गजे । साधवो नहि सर्वत्र, चन्दनं वने वने ॥
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प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य कहीं होता और प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं निकलता, सर्वत्र साधु नहीं मिलते और सब वनों में चन्दन नहीं होता।
कहने का अभिप्राय यही है कि ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं जो अपनी विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, भोग-विलास जिन्हें सर्वनाश के समान दिखाई देता है और सांसरिक सुख शुयुवत् भयंकर लगते हैं। इंद्रिय-जनित सुख की कामनाओं के ऐसे विजेता ही संसार से विरक्त होकर साधु -वृत्ति को अपना सकते हैं।
आत्मसाधना के मार्ग पर वीर और दृढ़ता से संपन्न व्यक्ति ही चल सकते हैं। कायर व्यक्तियों के कदम इस पथ पर नहीं बढते । हमारे शास्त्रों में कहा भी है -
जहा दुक्खं भरे जे, होड़ वस्सकोत्थलो । तहा दुक्खं करे जे, कीवेणं समणत्तणं ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र १९-४१ जिस प्रकार कपड़े की थैली को हवा से भरना कठिन है, उसी प्रकार कायरता से संयम पालना कठिन है।
कहने को तो आप लोग वह देते हैं कि - साधु जीवन बड़े आनंद का है। न पैसा कमाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है और न ही कोई फिक्र रहती है। स्वादिष्ट भोजन और आवश्यक्तानुसार वस्त्र आदि सभी चीजें इच्छा होते
ही प्राप्त की जा सकती हैं। ऊपर से लोग आ आकर चरणों में मस्तक झुकाते
हैं।
मेरे भाई! अगर ऐसा ही है अर्थात् साधु-जीवन इतना आनन्दमय है