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करना पड़ता होगा इसका वर्णन करना संभव नहीं है।
असंख्य पाप कर्मों का बंध करके जब जीव नरक में जाता है तो वहाँ पर उसे अत्यन्त दीन और हीन बनकर नाना प्रकार की असह्य यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। उस जीवन का वर्णन सुनकर ही रोमांच हो उठता है कि किस प्रकार नारकीय जीवों के शरीर का छेदन-दन किया जाता है तथा लाख बिलखने परभी अन्न पानी नहीं मिलता। कवि दौलकराम जी ने अपनी छहढाला की पहली ढाल में लिखा है -
अनमोल सांसें...
सेमर तक जुत दाल असि पत्र, असि ज्यों देह विदारें पत्र । मेरु समान लोह गति पाई, ऐसी 1शीत उष्णता थाई । तिल-तिल करें देह के खंड, असुर भिड़ावें दुष्ट प्रचंड ।
सिंधु नीरतें प्यास न जाय, तो गण एक न बूँद लहाय ।
और तो और नरक में जो सेमल के वृक्ष होते हैं, उनके पत्ते भी तलवार की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। उन पत्तों के गिरने से भी तलवार के घाव की तरह चोटें लगा करती हैं। कहते हैं कि वहाँ इतनी तीव्र गरमी होती है कि मेरु के समान लौह भी हो तो पिघल जाय। उसे भी नारकीय जीवों को सहन करना पड़ता है।
वहाँ रहने वाले असुर, शरीरों देत तिल के समान छोटे छोटे टुकड़े कर डालते हैं या आपस में ही एक-दूसरे को भिड़ा भिड़ा कर घोर कष्ट देते हैं। प्यास इतनी तीव्र लगती है मानों सारे सागर का जल पी लेवें तो भी शांत न हो किन्तु मिलता एक बूँद पानी भी नहीं।
नरक में जीव को ऐसी असह्य यातनाएँ सहन करनी होती हैं। पर वहाँ से निकलकर भी दुखों से छुटकारा मिल पाता हो, ऐसी बात नहीं है। कहते हैं
निकल नरक से कभी जीव तिथेच योनि में आता, वध बन्धन के भार वहन के स कोटिशः पाता। एक श्वास में बार अठारह जन्म-मरण करता है, आपस में भी एक दूसरा प्राण हरण करता है।
किसी प्रकार जीव नरक से निकल भी जाता है तो तिर्यच योनि में जा फंसता है, तथा गधा, घोड़ा या बैल गाकर शक्ति से अनेक गुना अधिक भार ढोता रहता है, मारा-पीटा जाता है और अनेक बार तो बलिदान का बकरा बनकर प्राण त्याग करता है। असंज्ञी अवस्था में तो वह एक ही श्वास में करीब अठारह बार भी जन्म और मरण के दुःख भोगता है।
तो 'सुमति' चेतन से यही कह रही है कि तुझे अज्ञानदशा के कारण चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते और असह्य कष्ट सहते हुए अनन्तकाल व्यतीत