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अनमोल सांसें... तीन हाथ के शरीर को हिलाना पड़ता है। अर्थात् कड़ा परिश्रम करना पड़ता है जिससे पूर्ण शरीर को कष्ट होता है।
आप देखते ही हैं कि जो बालक प्रारम्भ से ही ज्ञानार्जन में रुचि रखते हैं तथा मनोयोग से ज्ञान-लाम करते है। वे आगे जाकर उँची पदवियाँ प्राप्त करते हैं तथा कुर्सियों और सोफों पर आनन्, से बैठकर जीवन-यापन करते हैं। किन्तु जो बालक बचपन में ही पढ़ने से जी चुराते हैं, स्कूल से भाग जाया करते हैं या अविनय और उदंडता से निकाल प्रिये जाते हैं, उन्हें बड़े होने पर खेतों में भी मजदूरी करनी पड़ती है। इसलिये ज्ञशन सीखने में कमी प्रमाद नहीं करना चाहिए। संत तिरुवल्लुवर का कथन है ---
"आलस्य में दरिद्रता का वास है, मगर जो आलस्य नहीं करता उसके परिश्रम में कमला (लक्ष्मी) बसती है।" भर्तृहरिने भी आलस्य को मनुष्य का शत्रु माना है :
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्युः कृत्वा यं नावसीदति॥ - आलस्य ही मनुष्य के शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा शत्रु है, और उद्यम के समान मनुष्य का कोई बन्धु नहीं है जिसके करने से मनुष्य दुखी नहीं होता।
तो बन्धुओ, जब किताबी ज्ञान प्राप्ति में आलस्य करने से भी परिणाम कष्ट कर और बुरा निकलता है तब धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने में आलस्य करने से तो कितना अनिष्ट होगा इसकी आप स्वर ही कल्पना कर सकते हैं। धार्मिक ज्ञान मनुष्य के विवेक को जागृत करता है, उसकी रुचि सद्गुण-संचय की ओर बढ़ाता है। तथा मनुष्य में आत्मा, परमात्मा, लोक, परलोक आदि के रहस्य को समझने की जिज्ञासा पैदा करता है। मनुस्मृति में कहा गया है :
"ज्ञानेन कुरुते यतं यत्नेन प्राप्यते महत्।" ज्ञान की प्रेरणा से ही आत्म विकास के मार्ग में प्रयत्न, गति करता है और उसी के परिणामस्वरूप ईश्वरत्व रूप महान् फल की प्राप्ति हुआ करती है।
इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान हासिल करने में प्रमाद नहीं करना चाहिये। इस संसार में एकमात्र सम्यक्ज्ञान ही आत्मोद्वार में सहायक बनता है। जब सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो आत्मा में विवेक की जागृति होती है और प्राणी स्वयं ही सांसारिक भोगों से विरक्त हो जाता है। उनका उपयोग करता हुआ भी वह उनमें आसक्त नहीं रहता, अनासक्त भाव रखता हुआ अपने कर्मों की निर्जरा करता रहता है। भोग-विलासों में उसे तनिक भी रुचि नहीं रहती, वह प्रतिपल उस क्षण की प्रतीक्षा किया करता है जिर्स क्षण वह इस संसार से मुक्त होगा।