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आनन्द प्रवचन : भाग १ बाहर निकलकर प्रभु से मिलने के लिए होगी तब मु प्राप्ति हो सकेगी।
शिष्य की आँखे खुल गयी। और अतीव श्रध्दा से उसने अपने गुरु को नमस्कार किया।
संत इसी प्रकार साधकों को बोध देते हैं। नाना प्रकार से समझाते हैं कि प्रमाद को त्यागो, विकार रहित बनो, संसार में रहकर भी इसमें लिप्त मत होओ, सुकृत करो, सेवा और सहिष्णुता को अपनाओ, तथा सद्गुणों का संचय कर पुण्योपार्जन करो। यही तुम्हारे मुक्ति-पथ का पाश्रेय बनेगा। यह वह खर्ची होगी, जिसका संबल लेकर तुम अपने गंतव्य तक पहुँच सकोगे। . संतों के उपदेश का यही महत्व और विशेषता है। अगर मानव उसे हृदयंगम कर ले, अपनी बुध्दि द्वारा उसे ग्रहण कर सके तो निश्चय ही आत्मकल्याण के पथ पर बढ सकता है। दूसरे शब्दों में उपश अमृत-तुल्य है। अगर उसका सही उपयोग किया जाय तो वह अज्ञान, मोह, गया और प्रमाद के गहन अन्धकार में भटकती हुई आत्मा को उससे निकाल कर ज्ञान के अद्वितीय ज्योतिर्मय लोक में ले आता है। ज्ञान का महत्व अवर्णनीय है। कहा मी है - "ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते।"
- भगवद्गीता - ज्ञान रूप दिव्य अग्नि सभी कमों को सस्म कर देती है।
इसलिये बंधुओ, अगर अपने कर्मों का क्षय करते हुए आपको मुक्ति मंजिल प्राप्त करनी है, तो अपने ज्ञान और विवेक को जागृत करो, आत्मशक्ति को बढाओ और संत-समागम से अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाकर दृढ श्रध्दा एवम् साहसपूर्वक साधना-पथ पर बढो। मंजिल स्वयं आपके निकट आकर रहेगी।